पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/३९९

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( ३५४ ) इसी तरह---कीजिए, दीजिए, लीजिए आदि शुद्ध और फीजिये, दीजिये, लीजिये आदि गलत हैं । अवधी आदि में “य प्रायः होता है; कभी ‘ए’ भी-..लाये-जाइ। चाहिए? अादि का ‘ए’ वहाँ ‘' है---‘चाहिय’ कीजिये आदि। व्रजभाषा में ‘वाहिए जैसे रूप होते हैं। अब ‘ए’ को ‘य' हो जए गा, तब वहाँ ( व्रजभाषा में ) भी कीजिये गलत हो गा । या तो कीजिए’ रहे गा, या फिर कीजिय' । यह नहीं हो सकता कि 'ए' को 'य' भी हो जाए और वह स्वयं ज्यों का त्यों बना भी रहे। इस तरह के प्रयोगों की विशेष उपपत्ति हिन्दी शब्द-भीमांसा' इम ने विस्तार से दी है। लड़का से' गलत है, लड़के से शुद्ध । परन्तु समास में-डंडा-बेड़ी' शुद्ध है। डंडेदार बेड़ी-डंडा-बेड़ी'। इसी तरह गुंडा-हथकंडे’ ‘मठा- मिठास' आदि में *' को *Q' न हो गए । प्रत्यय परे हो, तो--- शुद्ध----ठेकेदारी, दावेदार, डंडेवाला, अगिरे से । अशुद्ध---ठेक्कादारी, डंडावाला, आगरा से ।। शुद्धः–एक बौद्ध भिक्ष ने उसे उपदेश दिया ! अशुद्ध---एक बौद्ध भिक्षुक ने उसे उपदेश दिया !

  • भिक्षु' से कुत्सित अर्थ में ‘क’ प्रत्यय हो कर ‘भिक्षु' बना है । “भिक्षु

शब्द विशेष अर्थ में रूढ़ हो गया है। “भिक्षु-संन्यासी । बौद्ध साधुओं को प्रायः *भिक्षु' ही कहा आता है। *भिक्षुक' दूसरी चीज ई-साधारण भिखारी ! *भिक्षु' भी भिक्षा माँगता है; परन्तु साधारण रोटी-दाल । वह उस के बदले हमें बहुत कुछ ( ज्ञान-उपदेश ) देता है। परन्तु भिक्षुक' में यह बात नहीं । साधारण भिक्षुक को ‘भिक्षु' कहना भी ठीक नहीं-अर्थ- भ्रम को जगह मिलती है । हिन्दी में अर्थ-भ्रम बचाने के लिए साधारण प्रयोग-नियमों में भी हेर-फेर कर दिया गया है। पु० अकारान्त शुब्र्यों के आगे “ॐ” विकरण लगता हैं, तो ( प्रकृति का ) अन्त्य “आ” लुप्त हो जाता है--‘पंडों का समूह ‘लड़कों ने कहा' आदि । परन्तु भारत की पूरबी सीमा पर नागाओं ने ऊधम मचा रखी है। यहाँ ‘नागा ही चलता है । “नागों ने ऊधम मचा रखा है। कुछ श्रमात्मक हो जाएगा। ‘नाग' का भी रूप ‘नागों का होता है। पहाड़ी नागाओं ने बड़ा ज्ञहर फैला दिया है' के