पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/४००

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
(३५५)

( ३५५ )

  • नाथाश्री' को यदि ‘नाग' कर दिया जाए, तो आपाततः भ्रम हो सकता है।

वह न हो, इस लिए नागा प्रयोग । यह विशेष व्यवस्था भ्रम दूर रखने के ही लिए है । “भिक्षु' तथा “भिक्षुक' शब्दों में जैसे अर्थ-भेद है, उसी तरह हिन्दी ने शब्द-विकास में भी नंगा' तथा 'नागा' आदि में परि- वतन कर दिया है। नंगों को लाज कहाँ ?' यहाँ नंगा साधारण शब्द) हैं । 'नग्न' से ही नंगा है और इसी से नागा' भी है । वे पहाड़ी जातियाँ पहले एकदम वृन्य स्थिति में थीं--प्रायः नग्न अवस्था में रहती थीं । काला- न्तर में सभ्यता आई और तब उन्हें नंगा’ न कह कर 'नाग' कहा जाने लगा। वे लोग स्वयं भी अपने आप को ‘नागा' कहते हैं। साधु-संन्यासियों में एक फिरका ऐसा है, जो कुम्भ मेले पर एकदम नंगे हो कर स्नान करता है; परन्तु सदा वस्त्र पहनता है। इस विशेष प्रकार की नग्नता के कारण इन्हें भी साधारण शब्द नंगा' से नहीं, ‘नागा' इस विशेष शब्द से लोग जानते-पहचानते हैं। ये लोग भी अपने आप को 'नोगा' कहते हैं। प्रसिद्ध 'नाग'-वंश के 'नाग' से या सर्प-वाचक नाग' से 'नागा' नहीं है। संस्कृत आकारान्त शब्दों के अन्त्य ‘अ’ का लोप नहीं होता आचार्य द्विवेदी के अनन्तर सरस्वती' जिन के हाथ में आई, उन्हों ने राजों का ऐश्वर्य’ इस तरह के प्रयोग चलाने शुरू कर दिए थे; परन्तु “लेखन-कला में ऐसे प्रयोगों का खण्डन किया गया, तब ‘राजाओं के’ फिर चलने लगा । थदि वह उद्योग न होता, तो फिर *पितों का और मात फा' जैसे रूप भी सामने आते और हिन्दी की सुव्यवस्था नष्ट हो जाती ! कई और गलतियाँ- शुद्ध रूप-राष्ट्रीय जन वहाँ एकत्रित हुए अशुद्ध रूप–राष्ट्रिय जन वहाँ एकत्र हुए हिन्दी का सरल और असन्दिग्ध मार्ग प्रसिद्ध है। भारतीय' आदि की तरह ‘राष्ट्रीय' ही रहे गर । संस्कृत व्याकरण से राष्ट्रीय' भी बनता है। पर, न भी बनता होता, तो भी यहाँ यही ( ‘राष्ट्रीय' ) रह तार-चलता। संस्कृत में

  • राष्ट्रिय' कहते हैं--‘राजा के साले को ।

इसी तरह विशेषण के रूप में एकत्र’ गलत है---एकत्रित’ चाहिए। ‘एकत्र' तो अधिकरण--प्रधान ( स्थान -वादक ) अव्यय है; न कि विशेषण । 'एकत्र हुए” में “एकत्र’ विधेय विशेषण की तरह प्रयुक्त है, जो डालत है । कैसी विचित्रता है । “कत्र नाच-गान हो रहा है; अपरत्र करुण क्रन्दन