पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/४१५

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नहीं । तृतीय-संस्कृत में 'स्तम्भ' शब्द है, जिस का तद्भव रूप ‘थंभ’ पुरानी अवघी-ब्रजभाषा की कविता में मिलता है; क्योकि खंभा' वह चलता नहीं । खंभ फोरि' आदि में खंभ’ जरूर है । परन्तु यह स्तंभा' या खंभ’ संस्कृत ‘स्तम्भ से नहीं हैं, वेदभाषा के कस्म’ शब्द से हैं । ऋग्वेद में 'स्कम्भ' शब्द श्रआया है। आगे चल कर यही ‘स्कम्भू संस्कृत के परवर्ती रूप में स्तम्भ' हो। गया हो गए । जनभाषा मे ‘स्कम्भ' चलता रहा और बदलते-बदलते खंभ-

  • खंभा हो गया । इस' हु’ बन गया और कू के साथ बैठ कर ‘ख’ रूप ।
  • स्कम्भूः' का खंभा हो गया; परन्तु ‘कोकिलः' का कोइया' या कोयला

नहीं हो । निर्विसर्ग कोकिल’ को ‘कोकिला' जरूर हिन्दी ने कर लिया, स्त्रीलिङ्ग । जैसे ‘दार’ का दारा' । भ्रम-सन्देह को गुंजाइश नहीं । ‘पूर्वज-प्रयोग संस्कृत-साहित्य में श्रार्षः प्रयोगः ( शब्द-प्रयोगों पर विचार करते- करते ) सामने आता है । महान् पूर्वज लोगों को कोई शब्द-प्रयोग पाणिनि आदि के व्याकरणों से विपरीत दिखाई देता है, तो उसे 'गलत' कहने की अशिष्टता नहीं की जाती। 'आर्षे प्रयोग है' कह कर उसे दर-गुजर कर दिया जाता है। परन्तु उस प्रयोग को हमें आदर्श नहीं मानते; वैसी प्रयोग अपनी भाषा में नहीं करते। लताएं-लतायें, चाहिए-चाहिये, अQ गा--ये गा; आदि द्विरूप शब्दों पर विचार पहले हुआ ही न था; इस लिए आचार्य द्विवेदी तथा आचार्य शुक्ल आदि की भाषा में यदि शिक्षायें चाहिये ‘जाये गा जैसे प्रयोग मिलें, तो हम धूर्व-प्रयोग' कहें गे; गलत नहीं । गलत तो तब कहा जाता, यदि उस समय था उस से पहले तक-युक्त कोई निर्णय हो गया होता । परन्तु वैसे पूर्वज-प्रयोगों का अनुकरण हम न करें गे; जैसे कि संस्कृत में “आर्षे प्रयोगों का नहीं किया जाता है। कविता की भाषा ‘कविता की भाषा को कुछ स्वतन्त्रता है-व्याकरण का अंकुश वहाँ नहीं है यह भ्रमात्मक धारणा है । भाषा एक है, चाहे उस की गद्य में प्रयोग हो, पद्य में हो, काव्यात्मक गद्य-पद्य में हों, या दर्शन-विज्ञान में हो । व्या: करण का नियंत्रण सर्वत्र समान है और व्याकरण है भाषा की स्वाभाविक गति का प्रतिपादन । भाषा अपनी गति-प्रकृति से चले, इस का ध्यान तो