पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/४१६

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( ३७१ ) कवि को सब से ज्यादा होना जाहिए। वही तो भाधा का सम्यक् ज्ञाता' और ‘सुप्रयोक्ता है । ' परन्तु हिन्दी की पुरानी कविताएँ” उद्धृत कर--कार के हम उन्हें गलत जुताएँ ६,( कि यह प्रयोग व्याकरण–विरुद्ध है? यह शब्द गलत है इत्यादि कहें), तो यह शालीनता न हो गी । ऐसे पूर्वज-प्रयोग' हम प्रत्युदा- हरों में भी न लाएँ गे । उस समय प्रवाह ही दूसरा था । भारतेन्दु-युग में हिन्दी का स्वरूप गद्य में तो थोड़ा-बहुत साफ हो भी गया था; पर पद्यों की या कविता की भाषा बड़ी विचित्र थी ! द्विवेदी-युग के पूर्वाद्ध तक वहीं स्थिति रहीं। स्वयं द्विवेदी जी की कृविताएँ सामने रख कर उसी समय फ़ी ( द्विवेदी जी की ही ) गद्य-भाषा से उस का मिलान कीजिए-आकाश- पाताल का अन्तर जान पडे गा । इस का कारण है। तब तक ‘कविता की भाषा को स्वतंत्रता है। यह प्रवाद प्रचलित था। सन् १६१० से आचार्य द्विवेदी ने इस बात पर अधिक जोर दिया कि गद्य और पद्य की भाषा में कोई अन्तर न होना चाहिए और व्याकरण को पूर्ण नियंत्रण होना चाहिए । ( उन के प्रमुख शिष्य) श्री मैथिली शरण गुप्त आदि ने युह नियंत्रित मार्ग पकड़ा और कविता में परिमार्जित हिन्दी का प्रयोग किया, जहाँ व्याकरण पर प्रति- पद् ध्यान है । गुप्त जी की कविता का संशोधन स्वयं द्विवेदी जी करते थे । इसी समय अन्यान्य हिन्दी-कवियों ने भी व्यकरण–सम्मत परिष्कृत हिन्दी का प्रयोग अपनी-अपनी कविता में किया और यह मार्ग चल निकला | अाज कोई भी कवि अपनी भाषा को स्वतंत्र नहीं समझता; कहीं कोई अन- वधानता से गलत प्रयोग हो जाए; यह दूसरी बात है । ऐसी गलतियाँ तो सब से होती हैं--पाणिनि से भी हुई हैं; हम लोग तो किसी गिनती में ही नहीं। परन्तु इन गलतियों का समर्थन न किया जाए गा । गलती को गलती कहने से ही काम चलेगा। ‘पूर्वज-प्रथोग छोड़ कर, शेष सभी लोगों के गलत प्रयोग हम प्रत्युदाहरण में रख सकते हैं। आचार्य द्विवेदी की कविताएँ भी पं० कामता प्रसाद गुरु’ अपने हिन्दी व्याकरण में विचारार्थ ले सकते थे; यदि काव्यभाषा का नियंत्रण व्याकरण बनाते समय ( १९१७-१६ ) से पूर्व हुश्ना होता जब तक गद्य-पद्य की एक भाषा' हा सवाल ही नहीं उठा था, उस समय की कविता–भाषा हम ‘पूर्वज-प्रयोग के रूप में ही लें गे' । 'गुरु' जी को भी यही मानना चाहिए था । बहुत दिन बाद, आचार्य द्विवेदी का स्वर्गवास हो जाने पर, हिन्दी-ब्याकरण' के द्वितीय