पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/४१७

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(३७२)

(३७२ ) संस्करण में ( सन् १९५२ में ) प्राचार्य द्विवेदी की कविताएँ यदि ‘चिन्त्य'-.. प्रयोगों में रखी जाए, तो इसे अच्छा न कहा जाए गा ! यहाँ यह भी ध्यान रखने की बात है कि ‘सभा' ने 'गुरु' जी के व्याकरण की जो परीक्षण-समिति बनाई थी, उस के प्रधान आचार्य द्विवेदी ही थे और द्विवेदी जी के ही अाग्रह से सभा' ने यह व्याकरण बनवाया था। द्विवेदी जी की सिफारिश से ही गुरु जी को व्याकरण लिखने का काम सौंपा गया था । ‘गुरु जी की कविता की भाषा भी वैसी ही है ! संक्षेप यह कि कानून बन जाने पर ही कोई अपराधी होता है; यदि उस का उल्लंघन करे ! उस से पहले यदि किसी ने वैसा काम किया हो, तो उसे अपराधी न कहें गे; विशेषतः जब कि उसे के वर्ग को वैसे काम करने की छूट समाज ने दे रखी हो । सो, भाषा-संबन्धी नियम (व्याकरण) बन जाने पर ही उन का पालन होता है, और जो निरङ्कुशता प्रकट करते हैं उन की भत्र्सना होती है। पहले के प्रयोग गलत' न कहलाएगे । पूर्वजों के ग्रन्थों की भाषा ज्यों की त्यों रहनी चाहिए। उस से तो भाषा- परिष्कार की गति सामने आए है । उस का संशोधन कर के अपना उपहास ने कराना चाहिए । संशोधन तो गलती का होता है । उस भाषा को हम गलत कह कैसे सकते हैं, जब कि वह अपने समय की गति के अनुसार है । हो, प्रयोग-परम्परा समझाने के लिए उसे हम अवश्य ले सकते हैं । अननुनासिक-अनुनासिक स्वर वाक्य-गठन में पदों के अनुनासिक–अननुनासिक स्वरों का झमेला श्रा खड़ा होता है । 'आँठ-बन्धन’ को लोग 'गठबन्धन' लिख देते हैं ! परन्तु पूर्व पद में ‘गाँठ' शब्द है, ‘गाठ' नहीं। ‘गाँठ' में अनुनासिकता ‘ग्रन्थि के ‘न्’ का परिणाम है। सो, “अँठ-बन्धन' लिखना चाहिए। पूर्व पद का श्राद्य स्वर ह्रस्व भर हो जाता है। उस की अनुनासिकता कहीं नहीं चली जाती है। कोई बड़ा आदमी छोटा हो जाए, तो उस की प्रकृति न बदल जा गी। इसी लिए चमेले मिठाई' होता है, पचमेल' नहीं । परन्तु

  • सात’ को ‘सँत’ कभी भी न हो गा--सतनजा' रहे गा ।

| कोई-कोई भत्र्सनार्थक 'डाँट' शब्द को ‘डाट' लिख देते हैं-डाट- फटकार' | यह गलत है। ‘डाँ' शब्द है । ‘डाट' तो ( शीशी का मुहँ बन्द