पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/४१९

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कार-प्रकरण विस्तार से नहीं दिया; क्योंकि ग्रन्थ का विस्तार अपेक्षित नहीं है। पुराने सभी हिन्दी व्याकरणों में 'ने' को श्रादि विभक्तियों को ही कारक समझने-समझाने की गलती की गई है और कारक भी याद समझ लिए गए हैं ! विभक्तियाँ कारक नहीं है, कारकों की अभिव्यंजना करती हैं- कारक बतलाती हैं । “गण्डवेश ही सेना नहीं है, सेना का गणवेश होता है । यहाँ केवल इतना कहना है कि कारक तथा विविध संबन्ध' प्रकट करने के लिए विभक्तियों का तथा संबन्ध--प्रत्ययों का प्रयोग ठीक न करने से भाषा गलत हो जाती है । राम के लड़का हुआ (संस्कृत--रामस्य पुत्रः अभवत् ।) राम के लड़की हुई ( संस्कृत-रामस्य पुत्री अभवत् ) यहाँ हिन्दी में ( संस्कृत की तरह ही ) संबन्ध-विभक्ति लगती है, जिस में कभी कोई परिवर्तन नहीं होता। इस की जगह कुछ लोग ‘को' विभक्ति लिख देते हैं—-लिख गए हैं ! काशी की ओर के कई साहित्यिक जन लिखते हैं--- राम को लड़का हुआ।

  • उन्हें दो लड़कियाँ हुईं आदि।

ऐसे प्रयोग गलत हैं । “सुमित्रा को कै हुई, टट्टी हुई जैसे प्रयोग तो ठीक; पर ‘सुमित्रा को लड़की हुई गलत प्रयोग हैं । ‘लड़की कोई टट्टी-पेशाब नहीं कि उस के योग में को' विभक्ति दी जाए ! काशी की जनपदीय भाषा ( बोली ) में ऐसी जगह को जरूर बोलते हैं; पर राष्ट्रभाषा में नहीं । काशी में तो 'है' को 'ह-हौ' भी बोलते हैं; पर काशी के साहित्यिक हिन्दी में हैं' को इ’ ‘या’ ‘हौ' थोड़े ही कर देंगे ! सर्वत्र ‘दशरथ के चार पुत्र हुए चलता है, ‘दशरथ को नहीं । ब्रजभाषा में भी--‘नन्द के सुत-रूप प्रगटे-नन्द को नहीं । अवधी में भी–‘भई गलानि भोरे सुत नाहीं' चलता है--‘मोहि या ‘मो फहँ नहीं | राजस्थानी में भी यही बात है। यानी पुत्र आदि की उत्पत्ति में संबन्ध-विभक्ति के का प्रयोग होता है; को देना गलती है। टट्टी-पेशाब, या क्रोध आदि नैसर्गिक उद्रेक के स्थल में को’ का प्रयोग होता हैं-‘राम को खाँसी आ गई–“सीता को क्रोध आ गया' आदि। यहाँ “को एक विशिष्ट कर्म में ही है। जो खाँसी' या