पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/४३३

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यहाँ लिखना' या निबन्ध लिखना' विधेय नहीं, उद्देश्य हैं। जो लोर निबन्ध लिखते हैं, ज्ञात हैं। उन के बारे में कुछ कहा गया है, जो विधेय है । उन को भ्रष्ट होना विधेय ई-प्रतिपाद्य है । 'निबन्ध-लेखक शब्द में

  • लिखना ( लेखन )--क्रिया विद्यमान है; परन्तु वह साध्य नहीं हैं,

प्रतिपद्य नहीं है। इसी लिए यह विधेय' नहीं है । पथभ्रष्ट होना' विधेय है ! ‘है क्रिया है और पथ-भ्रष्ट’ उद्देश्य ( निबन्ध-लेखक ) का ‘विधेय- विशेषण' है । लड़के गए' में ‘गए' क्रिया विधेय है; परन्तु ‘ए की चिन्ता नहीं' में गए उद्देश्य है, सिद्ध है। क्रियाओं के मूल रूप-धातु, लोटा, गिलास, थाली, कटोरा श्रादि विविध बर्तन देख कर आप ने उन सब में एक ही उपादान पाया और तब कहा कि सच बर्तन पीतल के है । तो, इन बर्तनों की ‘धातु पीतल हुई, जिस ने इन सब ( बर्तन ) को धारण कर रखा है, जो इन के रूप में परिणत हो रही हैं। इसी तरह लोहा, सोना, चाँदी अादि समझिए। इन धातुओं से न जाने कितनी चीजें बनती हैं। इसी तरह पढ़ता है' पढेङ्गा’ ‘पढ़ता था' 'पड़िहै' पढ़सां’ ‘पदै ग’ पढ़' श्रादि विविध क्रिया-पदों में जो चीज व्यापक दिखाई देती है, जो उपादान-रूप से सर्वत्र विद्यमान है, वह ‘घातु कही जाए गी । उपर्युक्त सभी पदों में पढ़ श्राप देख रहे हैं-कहीं स्पध, कहीं कुछ दूसरे रूप में । पढ़े !' में भी आप पढ़' देख रहे हैं। जल में कोई रंग या चीनी घोल देने पर भी आप को यह सन्देह नहीं होता कि यह जल है कि नहीं ! सो, विविध क्रिया-पदों के मूल रूप को ‘धातु' कहते हैं । हिन्दी में सभी धातु स्वरान्त हैं, एक भी व्यञ्जनान्त नहीं । संस्कृत “पठ” आदि व्यञ्जनान्त धातुओं में बर्ण-विकार कर के स्वरान्त कर लिया गया हैं--पढ़। हिन्दी के गठन में ऋवर्ण को कोई स्थान नहीं; इस लिए यहाँ ऋकारान्त कोई धातु नहीं । संस्कृत की ‘कृ’ धातु यहाँ कर' है और “भू' है।

  • र' के रूप में । “ट्ट’ को ‘अर्’ हो जाना संस्कृत में भी प्रसिद्ध है । ‘कृ’

के “ऋ’ को ‘अर' कर लिया गया---+अर = 'कर' । हिन्दी को व्यञ्जनान्त धातु ग्राह्य नहीं; इस लिए ‘अ* अन्त में ला कर ‘कर' धातु । यही ‘कर हिन्दी से संबद्ध अवधी, ब्रजभाषा आदि बोलियों में तथा पंजाबी, गुजराती,