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गुरुत्व पसन्द करती है। इसी लिए 'हो' तथा 'जा' धातुओं के ‘होता'.. जाता जैसे रूप चलते हैं । भविष्य में हो गा' की जगह ‘इगा करने से तो एक मजाक ही बन जाता । “हर हिन्दी की बोलियों में एक पृथक धातु है । संस्कृत ‘हद् ( पुरीपोत्सर्ग ) के दु’ को ‘ग' कर के यह है । बच्चों के पुरीषोत्ल के लिए इस का प्रयोग हुद-बोलियों में होता है। यदि

  • ' सार्थक धातु का भविष्य में ‘हया' रूप बनता, ते कितना भद्दा लगता !

| इन दोनो---'ह' तथा 'ग'-धातुश्चों से कृदन्त भाववाचक संज्ञाएँ । बनती ! न तो “ह” से “हुना' छनता है, न 'ग' से 'गना' । संस्कृत ‘हन्’ धातु को सस्वर फर के और भू तालिक ‘य' प्रत्यय कर के ब्रजघा में न्यो’ और अवध में 'हला’ भिन्न प्रयोर हैं । “ना” या ‘इन्यो..मारा' । यो यह ‘हुना' 'ह' की भाववाचक संज्ञा नहीं; *हन' सकर्मक की भूतकालिक क्रिया है-'हना खर बाना' और 'हन्यो कुंस मथुरा पहुँच” । राष्ट्रभाषा में इन् की जगह ‘मार धातु, । “उपधातु है-इर’ को प्रेरणात्मक रूप । जब ‘मरता है' आदि के लिए 'मर' धातु हैं ही, तत्र उसी की प्रेरणा से मार ठीक । पृथक् ‘हन' धातु क्यों ली जाए ! *हना' की तरह ‘गना’ और ‘हन्यो’ की तरह ‘न्यो’ अादि अन्यत्र भिन्न सकर्मक क्रियाएँ हैं। धूप में गिना’ होता है-“हमें कुछ गिना ही नहीं। उन्हें भी गिना ?' । हिन्दी में 'इ' तथा 'ग' से भाववाचक संज्ञाएँ नहीं बनती, इतना भर कहना है । ‘होना-जाना’ ‘हो' तथा 'अ' धातुओं से हैं। संस्कृत में भी

  • अस्’ से भाववाचक संज्ञाएँ नहीं बनतीं ! *भू' तथा 'अस्' के अर्थों में कुछ

अन्तर है। भवनम् से काम चल नहीं सकता; इस लिए अस्तित्व' या सन्चा' श्रादि शब्द बनते-चलते हैं। जैसा कि पीछे आभास मिला है, हिन्दी-धातुश्चों का विकास, या रूर- अहण कई पद्धतियों पर हुआ है। अखरना' बिंदुकन्या' आदि क्रियाओं के धातु प्राचीनतम मूल भाषा से, विविध लुप्त--प्रकट प्राकृतों में होते हुए, हिन्दी में आए हैं । कुछ धातुओं का आभास प्रत्यक्षतः संस्कृत धातुओं में मिलता है--पठ, या, गम्, ऋ ( कर् )-( पड़, जा, ग, कर } श्रादि । कुछ धातुश्चों में इतना अन्तर आ गया है कि साधारणतः चीज समझ में ही नहीं झाती ! “पठ” से पढ़' और 'या' से 'जा' की व्युत्पत्ति है - यानी धातु से- धातु । परन्तु बैद' धातु में इतना परिवर्तन है कि व्युत्पचि-विकास समझने के