पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/४३६

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देर लगती है। संस्कृत विश्' धातु में उप' उपसर्ग लगाने से बैठना' अर्थ निकलता है-उपविशति-बैठता है । परन्तु इस ‘उपविश' से 'बैल' का निकास-विकास नहीं है। हिन्दी ने ‘उपविष्ट कृदन्त से 'विष्ट अलग कर लिया। व’ को ‘ब्’ और ‘इ’ को ‘हे’ कर के बै’ बन गया। g’ को वर्ण ~~ व्यत्यय से ‘ट ५ अ' । हिन्दी में मूद्धन्य ‘ध’ को ‘स हो जाता है और ‘स' बन जाता है ‘हे’ । ट्र’ और ‘ह' मिल कर ‘’। “3 मिला । ॐ ‘अ’ में और 'बै के साथ 3' रख कर बैठ' धातु ।। | इसी तरह ‘पैठ भी है । 'राम कुए में पैठता है'.--प्रवेश करता है । हिन्दी ने प्रविश' की जगह 'प्रविष्ट कृदन्त की ओर देखा ! ५ र अ इ ७ ट' यह प्रविष्ट' का अक्षर-विन्यास है । यहाँ से ५ अ ' ये तीन अक्षर उड़ गए । 'इ' को 'ऐ' हो गया और ‘घु ट’ को ‘ठ' । उसी तरह पैठ' धातु निष्पन्न । निरुपसर्ग ‘खाद्’ अादि का आधा अंश ले लिया । पानार्थक * धातु ज्यों की त्यों ने ली गई; क्योंकि प्राप्त करना' अर्थ में हिन्दी की 'पा' धातु है-- ‘प्राप्त' का 'पा' मात्र ले कर । तु संस्कृत पानार्थक पा’ धातु की क्रिया

  • पिबति' से 'पि’ लिया गया और स्वाभाविक प्रवृत्ति के अनुसार दीर्घ होकर

के 'पी' धातु बनी। संस्कृत ‘उत्थान' के 'था' को अलग कुर के ‘ठा' बना लिया और ह्रस्व कर लिया । श्रागे अपना उपसर्ग ‘उ' लगा कर उठ’ धातु बना ली गई । यह उपस धातु के गठन में है; इस लिए अब इसे उपसर्ग न कहें गे । “ठ' मात्र धातु नहीं है । 'न' संस्कृत को .तद्रूप शब्द यहाँ चलता है, यह अलग बात है । “अपना' या तद्भव शब्द प्रायः गुरु ही होता है । एक कि’ अव्यय अवश्य लघु है, जो कि बहुत अवचीन चीज है । अवधी अादि में गुरु-लघु--‘की तनु प्रान कि केवल प्रान' जैसे उभयविध प्रयोग देखे जाते हैं। परन्तु राष्ट्रभाषा में ‘स लो गे कि जामुन ?' यों विंकल्प में भी

  • कि’ का ही प्रयोग होता है। बस, इस के अतिरिक्त अन्य सब अव्यय 'गुरु'

मिलें गे । संस्कृत झा 'अपि प्राकृलों में ‘वि’ हो गया । पंजाबी में दीर्घ ‘बी’ चलता है । परन्तु हिन्दी ने व’ को ‘बू कार के फिर ‘भ कर लिया---'भी' इसी तरह तु’ को ‘तो’ कर लिया। नु’ अादि लिए ही नहीं । सर्वनामों में भी गुरु-प्रवृत्ति ही है । 'यः' का 'ज' बनता; क्योंकि हिन्दी के गठन में विसग का कोई स्थान नहीं | अपनी 'श्रा’ विभक्ति लगा देने से ‘जा’ बन जाता; परन्तु हिन्दी की एक धातु “जा' है । सो, प्राकृत के ‘यो’ को ‘जो' बना कर काम लिया गया। विभक्ति ब्रजभाषा में है, जिसे हिन्दी ने भी ‘जो' में