पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/४३७

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ग्रहण कर लिया । यही लो’ अवघी आदि में भी है। कहावत आदि में सो’ भी चलता है; परन्तु अन्यत्र 'वह' हिन्दी ने रखा है, जो कि 'सो' को ही परिणाम है । वर्ण-व्यत्यय से ‘ओस्' । स्वरान्तता और ‘स' का 'ह् । ‘ओहिका' आदि रूप पूर्वी अंचलों में चलते हैं। ओह' के ओ’ को ‘ध’ कर के 'वह' राष्ट्रभाषा का रूप । इस ‘बई के वजन पर 'इ' शब्द चढ़ा गया } प्रासंगिक चर्चा बहुत लम्बी हुई जाती है । कइना केवल यह कि हिन्दी के स्वरूप-गठन में संक्षेपप्रियता तो है; परन्तु पदगौरव पर भी ध्यान है। संख्यावाचक संस्कृत ‘घषु का विकास हिन्दी में छह है; मराठी में ‘हा है । छ’ को गलती से छ' लिखने की अन्धाधुन्धी चल रही है। छह-छहो; जैसे चार-चारो आदि। कुभाही' में ‘ह' का लोप, जैसे ‘तिमाही में ‘न' का । वृत्ति में हिन्दी-शब्दों का प्रथम दीर्घ स्वर प्रायः ह्रस्व हो ही जाता है। घृणाव्यंजक अव्यय ‘छी' है---‘छी छी ! इसे भी लोग गलती से ‘छि लिखने लगे; परन्तु हिन्दी के पदों में तो गौरव अपेक्षित है। प्रवृत्ति ही ऐसी है। इस प्रवृत्ति ने ‘छि’ को ‘छिः करा दिया और ‘छ’ को भी छः' ! परन्तु ठेठ हिन्दी शब्दों में विसर्ग नाम की कोई चीज हैं ही नहीं; इस लिए छ' तथा

  • छि के आगे विसर्ग लगा कर छ:'--'छिः' बनाना गलती पर गलती !

लोकभाषा में विसर्यों की उपेक्षा प्राकृत काल से ही देखने को मिलती है, जहाँ अकारान्त संज्ञा आदि के रूप सदा ओकारान्त ( प्रथम के एकवचन में ) मिलते हैं, यानी विसर्गों को ‘ओं रूप प्राप्त है। खड़ीबोली की धारा में विसर्ग ‘आ' के रूप में स्पष्ट ही हैं। संस्कृत विभक्तियों की छाया ही तब प्राकृत में चल रही थी; पर ( उन छायाविभक्तियों में भी ) विसर्गों के दर्शन नहीं होते ! हाँ, संस्कृत के दूप ‘प्रायः' तथा 'दुःख' श्रादि-शब्दों से विसर्गों को हिंन्दी ने नहीं हटाया | सो, ‘छ' श्रादि गलत हैं । संस्कृत का तप शब्द ‘न' अवश्य लघु चलता है; यद्यपि जन-बोलियों में इस का दीर्घ रूप ‘ना प्रचलित है---‘ना भोरे सासु, ननद ना मोरे' और 'नाहीं नाहीं करत हौ तुम काहे को फन्त !' आदि । परन्तु साहित्यिक हिन्दी में राष्ट्रभाषा में---‘न' तद्रूप चलता है । अवश्य ही 'कि' ( अव्यय ) जैसा कोई अन्य लधु शब्द मिल सकता है, जो अश्लम बात है। प्रवृत्ति गुरुताप्रिय हैं।