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यही गुरुता-प्रवृत्ति धातुओं में भी है। इसी को हिन्दी की दीर्घाभिमुखी प्रवृत्ति कहते हैं; पर गौरव-प्रकृति' था ‘गुरुताप्रवृत्ति कहना अधिक अच्छा; क्योंकि ‘उठ' आदि धातुओं में, छह' आदि संख्यावाचक शब्दों में, ‘झट' अदि अव्ययों में श्रौर ‘लुट' अादि संज्ञाओं में स्वर-दीर्घता नहीं है; परन्तु गुरुता है। दो ह्रस्व (छोटे) मिल कर 'गुरु' या 'बड़े रूप में आ जाते हैं-गौरव प्राप्त कर लेते हैं-अपना वजन बढ़ा लेते हैं । संक्षेप यह कि हिन्दी के घातु स्वरूपतः संक्षिप्त, परन्तु ‘गुरु' हैं । सार्थक

  • तथा गत्यर्थक 'ग' धातु इस प्रवृत्ति में अपवाद-स्वरूप हैं; जैसे ‘क’----

जैसा एकाघ अन्य शब्द । परन्तु “ह' से बना पद ‘है? गुरू हो जाता है । इसी तरह जा' घातु की जगह भूतकाल में ‘आई हुई ‘’ धातु समझिए । इस से भी बना पद ‘या’ शुरु हो जाता है। परन्तु इन से भाववाचक संज्ञा ( सामान्य-क्रियावाचक ) शब्द हिन्दी नहीं बनाती । “हो” से होना’ बनता है; पर 'इ' से ‘हना नहीं । इसी तरह ‘जा' से 'जाना’ बनता है; पर 'ग' से ‘गना' नहीं । इस तरह कील-विशेष में क्वचित् प्राप्त व्ह'-'ग' को हिन्दी ने अलग ही एक श्रेणी में रखा है। दो शब्दों की श्रेणी भी क्या ! काम के लिए ले लिए गए हैं। ‘हो' धातु संस्कृत भवति' का विकास है-- भवति–भोदि, होइ । “होइ” से “हो” अलग कर के धातु-रूप से ग्रहण । धातु संस्कृत ‘अस्ति से है। ‘’ का लोप, स्’ को ‘हू और स्वर-दीर्घता । कहीं 'हि' और कहीं अहैं। कहीं 'हि' के 'ह' का लोप और 'इ' को -'ज्ञानै को आय !! न जाने कौन है ! है' से 'इ' को पृथक् प्रत्यय- रूपता और 'इ' घातु । इसी ‘ह से भूतकाल का “त'-प्रत्यय और पुंनिंभक्ति-- इता-हतो, इते, इती । वर्ष-व्यत्यय और वर्ण-विकार से ‘हता हो गया

  • था'। होता है, होता था, अादि संयुक्त रूप ‘हो'- से। 'हि' तथा

‘अहै' ब्रजभाषा-साहित्य में प्रसिद्ध क्रियाएँ हैं। इन दोनो रूपों के साथ साथ तीसरा रूप है' भी ब्रजभाषा में चलता है। खड़ी बोली में 'है' मात्र को चलन है; अन्य (श्राहि-“अई' ) का नहीं । अहै' का 'अ' घिस गया और 'है' बन गया है। | यह 'है' का विकास ‘अस्ति से है और तिङन्त ( ‘ति' प्रत्यय के अवशेष ) *इ’ की सत्ता होने से उसी पद्धति पर चलन है ।। इस ‘है' की धातु-कल्पना की जाए, तो कैसे ? इस के भाववाच्य कृदन्त रूप हिन्दी में हैं ही नहीं; जैसे संस्कृत में अस्ति' के नहीं हैं। अध्ययनम्'