पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/४३९

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आदि की तरह ‘असनम नहीं कर सकते । 'अस्तित्व' आदि से काम चलता है। ‘भवति' का 'भवनम् अवश्य बनता है; परन्तु अस्तित्व' के अर्थ में चलता नही देखा जाता । हिन्दी में 'भू' के 'हो' से 'होना' कृदन्त रूप होता है ।। तब फिर 'है' क्रिया की धातु क्या मानी जाए ? ई-हूँ अादि रूपों में 'ह' की स्पष्टता है । 'सर्वत्र दिखाई देता है। इ, उ, ऊँ, प्रत्यय साने जा सकते हैं, जिन कई आभास झरे, करो, करूँ अादि में भी मिलता है । अन्तर यई कि '६' में लगने पर वर्तमान झाल और अन्य धातुओं में विधि आदि की प्रतीति करते हैं । ‘अर्थभेदात् शब्द-भेदः' के अनुसार प्रत्यय-भेद भी समझिए । एक-रूप के अनेक प्रत्यय ।। सो, 'ह' धातु सार्थक मान कर इस में इ” आदि प्रत्यय लगा कर है आदि क्रिया-शब्द । “कहि सदा विप्रन पर दाया—ब्राह्मणों पर सदा दया करते हैं। ऐसे प्रयोग अवधी तथा व्रजभाषा आदि में होते हैं-करता है। के अर्थ में ‘करहिं का प्रयोग होता है । यह करहिं' भी तिङन्त है---‘जनक कारधि पालन सन्तति कौ’ और ‘जननि करहि पालन निज सुत कौ' । उभयत्र करहि । यह ‘हि' प्रत्यय 'है' का ही घिसा हुआ रूप जान पड़ता है । 'कर' धातु के आगे ‘हि'--'करहि । राष्ट्रभाषा में “त' कृदन्त प्रत्यय से करता ‘करती ‘करते’ रूप और आगे ‘है' तिङन्त क्रिया-करता है' आदि। ‘करहि' की त्रिभक्ति का ‘ह लुप्त भी हो जाता है--‘करइ' “जरइ पर अादि । विकल्प से ‘वृद्धि'-सन्धि भी हो जाती है--करै, जरै आदि । करै' में हैं विद्यमान है; परन्तु “खड़ी बोली के क्षेत्र में ( मेरठ के इधर-उधर }

  • है' या रे हैं जैसा भी बोलते हैं ! करता है की जगह करे है।

तथा करे है’ भी प्रयोग जन-चोली में होते हैं। यह पृथक् ‘है' की सत्ता की प्रभाब समझिए । 'करता है' में हैं देख कर करै है। करै है’ को ‘करें है' भी बोलते हैं। इधर ( मेरठ की श्रोर ) स्वरों की लघुता भाषा-विकास में अधिक देखी जाती है । ‘भगिनी' का 'बहिनी’ रूप कानपुर के इधर-उर प्रसिद्ध हैं । राष्ट्रभाषा में “बइन । विधि-रूप अन्यत्र ‘करै’ ‘पढ़े' आदि चलते ईं; परन्तु राष्ट्रभाषा में करे, पढ़े आदि । वृद्धि की अपेच्छा ‘गुण अधिक पसन्द हैं राष्ट्रभाषा को ।