‘है’ को ‘हे’ अच की बोली में लुप्त हो जाता है ‘ई’ को ‘’ बोलते हैं ।
परन्तु साहित्यिक ब्रजभाषा में सदा है'--'है' प्रयोग होते हैं । पंजाबी में
'ह' का लोप तो होता ही है, स्वर भी है' से 'ए' हो जाता है-लाइँदाए-
लाता है ।।
जैसा कि पीछे कहा गया है, हिन्दी की धातुएँ तरह-तरह से बनी हैं-किसी
ने इन्हें बनाया नहीं है, अपने श्राप बनी हैं। किसी व्याकरण ने 'अस्ति' से
‘है' या ‘अस्' से 'इ' नहीं बनाया है। व्याकरण तो श्रुत्वाख्यान भर करता
है। पीतल-ताँबा आदि धातुओं के किसी वैज्ञानिक ने नहीं बनाया है; वडू
इन सब का विश्लेषण भर करता है । गिरना, दिना, चिपटना आदि की
धातुएँ मूल-भूषा से विविध प्राकृत में होती हुई आई हैं। कुछ धातुएँ ऐसी
हैं, जिन का आभास संस्कृत में मिलता है। खादति, गायति, पिवतिं आदि के
आद्य अंश में हिन्दी की खा’ ‘गा' 'पी' घातुएँ दिखाई देती हैं--खाता हैं;
गाता है, पीता है आदि । ‘' के योग से क्रियाएँ। कुछ धातु सुत्कृत शब्दों
के योग से बनी है; जैसे “वीकार करना'। 'करनी' में 'कर' धातु है, परन्तु
मैं ने उनकी बात स्वीकार की तब काम बनाने में स्वीकार की इतना क्रिया-
पद है, केवल ‘की नहीं । इसी तरह ‘श्राज्ञा भंग की, तो दण्ड मिले गए
में ‘भंग की क्रिया है । फलतः भंग करना' क्रिया हैं; केवल ‘करना नहीं ।
यदि वैसा होता, तो 'आज्ञा भंग किया' प्रयोग होता । सूर्योदय होता हैं।
केवल होता है क्रिया हैं। परन्तु उदय' को पृथक्क कर के ‘सूर्य उदय होता
हैं' ऐसा प्रयोग भी होता है । (‘सूर्य उदित होता है' सँस्कृतज्ञ ही लिखते-बोलते
हैं !) तब उदय होना' पूरी क्रिया है। संस्कृत में भी 'कृ' ‘भू' तथा 'श्रस
के योग से कुछ धातुओं के क्रियापद बनते हैं । तत्सम ( तद्रूप ) संस्कृत
(कृदन्त ) शब्द के आगे अपनी घातु लगी कर संयुक्त-धातु हिन्दी में
बनती हैं । परन्तु श्राप को आदेश दिया जाता है' या 'श्रीज्ञा दी जाती है।
में केवल देना’ क्रिया है । संस्कृत शब्दों में हिन्दी अपनी क्रिया-विभक्तियाँ
त' आदि लगा कर ‘स्वीकारती हैं' ‘उदयता है जैसे रूप नहीं बनाती । हाँ,
ठेठ अपने ( संज्ञा आदि ) शब्दों से या संस्कृत के तद्भव शब्दों से हथियात्रा
है। सकारता है जैसे क्रियापद बनते हैं। इन क्रियाओं के मूल अंश नाम
धातु' कहलाते हैं । कई घातुओं को मिला कर भी क्रिया-प्रद बनाते हैं ऐसी
धातुओं के प्रकरण आगे आएँ गे ।
हम ने ऊपर उठ' धातु की व्युत्पत्ति व्याकरण की दृष्टि से दी हैं और
पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/४४२
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