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श्रख्यात' कहा गया और ‘पत्र' आदि शब्दों की 'नाम' संज्ञा हुई । आगे

  • नाम’ को ‘संज्ञा' कहने लगे । एक ही धातु ‘पत्’ का द्विधा प्रयोग | पत्थरों

को ही चूना बना लिया और पत्थरों को ही दीवार की चिनाई में रखा } मकान बन गया । फिर अव्यय तथा उपसर्ग बने-मकान के दूसरे उपकरण । | व्याकरण में ‘पतति' आदि आाख्यातों को धातुओं से बने ‘तिङन्त' शब्द् कहने लगे और ‘पत्र’ श्रादि कृदन्त' कहलाए। इन संज्ञाओं के कारण व्याकरण के प्रत्यय हैं, जिन्हें 'तिङ’ और ‘कृ’ नाम दिया गया । ‘ति प्रत्यय जिन के अन्त में हो, वे ( पततिं आदि ) तिङन्त' और 'कृत्’ जिन के अन्त में हो, वे ( ‘पत्र' आदि ) कृदन्त' शब्द । तिङन्त से क्रिया का आख्यान होता रहा, कृदन्त से “सिद्ध” जीवों या बस्नुओं का बोध ।। बहुत आगे चल कर कृदन्त शब्दों से भी क्रिया का श्राख्यान होने लगा। तब ‘क्रिया-शब्दों' के 'तिङलु’ र ‘कृदन्त' ये दो भेद कि गए । 'पन्नम्' कृदन्त है। इस के अनुसार ‘पत्रम् इतितम् ( पत्ता दिरा ) कहा गया, तो पतितम् कृदन्त क्रिया | जैसा उत्रम् ‘वैसा ही प्रतितम् । एक कृदन्त संज्ञा, दूसरा कृदन्त श्राख्यात' या 'क्रिश' । | परन्तु गिरा पत्ता मैंने देखा'--'पतितं पत्रं मया दृष्टम्' यहाँ ‘गिरा' और

  • पतितम्' श्राख्यात नहीं, विशेषण हैं। इन विशेष में भी क्रियांश बिंद्यमान

है; परन्तु उस की प्रधानता नहीं हैं। विशेषज्ञ से क्रिया का अाख्यान नहीं होता । थे तो अपने विशेष्य के साथ नत्थी रहते हैं-घुले मिले रहते हैं । बैंसी ( अप्रधान ) अवस्था में उन्हें अख्यात कैसे कहें दे ? जब अख्यिान ही नहीं करते, तब “आल्यात कैसे ? अाख्यान में प्रधानता रहती है- राम राया--रमा गई 'गया' और 'राई' अख्यात हैं, क्रिया --- पद हैं । परन्तु 'गया समय हाथ आता नही’ र ‘बाई सम्पत्ति लौटती नहीं' में ‘या’–गई? विशेषण हैं; यद्यपि क्रिांश उन में विद्यमान है। कृदन्त क्रिया थी प्रख्यात कई एक अच्छा लक्षण संस्कृत वैयाकर ने यह दिया है--- ‘क्रिन्तिका ज्ञानुपस्थापकत्वमाख्यातत्वम्