पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/४४८

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पढ़ो” । “तुम' कृत 'हो' तथा 'पढो से स्पष्ट है। पढ़ती हो' कहने से स्त्रीव भी स्पष्ट है। कृदन्त से ही शब्दों की बाति' या व्यक्ति की प्रतीति होती है, तिङन्त से नहीं । 'हो' तो एकरस रहता है। यानी शब्दों की जाति कृदन्त-अंश से श्रौर “पुरुष' तिङन्त-अंश से ज्ञात होता है। पथ कथं गते' कहने से यह न जाना पड़े गा %ि गिरनेवाले कौन हैं ? पुरुष हैं, या स्त्रियाँ ! बहुवचन जरूर स्पष्ट हैं । परन्तु गढे में क्यों गिरते हो ? कहने से पुल्लिङ्ग स्पष्ट है । * गिरती हो ?कहें, तो स्त्रीलिङ्ग स्पष्ट है । सम्भव है, इस तरह की स्पष्टता के लिए भी कृदन्त और तिङन्त का सम्मिलित प्रयोग हिन्दी ने पसन्द किया हो । दो चीजें तो अलग-अलग हैं । “पुरुष-प्रतीति तिङन्त से और लिङ् - अतुति कृदन्त से । परन्तु 'वचन'-मेद दोनो अंश में समान रहता है। लड़का पढ़ता है और लड़के पड़ते हैं। एकत्र दोनों अंशों में एकवचन, अन्यत्र बहुवचन | ‘सिद्ध’ और ‘साध्य क्रियाएँ संस्कृत-व्याकरण में धातुओं के तिङन्त-रूपों को ‘साध्य' कहा है और कृदन्तों को 'सिद्ध' । पतितं फलं पश्यति'--'गिरे हुए फल को देख रहा है। में पतितं' तथा 'गिरा हुआ।' शब्दों में जो धात्वंश हैं, वह विधेयात्मक नहीं हैं। विधान तो देखने का है। फिर भी उन उद्देश्यात्मक शब्दों में कियाँश तो है ही, भले ही वह दबा हुआ हो । उस के उस अंश को हो ‘सिद्ध भाव फहवे हैं । सिद्ध है, स्पष्ट है कि पत्ती मिरी हुआ हैं। उस 'गिरे हुए पत्रों के बारे में कुछ कहा जा रहा है । तो, जो कुछ कहा है। रही है, वह ‘विधेय' है,

  • साध्य है। देखता हूँ साश्य क्रिया है। संस्कृत में पहले तिङन्त क्रियाएँ

ही साध्य' या विधेय’ रूप से चलती थीं, विशेषण आदि ('सिद्ध’ ) रूप से कृदन्त । इसी लिए वैसा कहा गया है। आगे चल कर ( संस्कृत में ) कृदन्त क्रियाएँ भी विधेयात्मक चलने लगीं--रामः काशीं गतः-----राम काशी गया । 'गतः' विधेयात्मक होने पर भी ‘सिद्ध हैं और हिन्दी की अपनी व्याख्या से ‘अाख्यात' हैं । 'सिद्ध–निश्चित और साध्य'- अनिश्चित हिन्दी ने ‘सिद्ध’ और ‘साध्य' शर्दो को क विशेष अर्थ दिया है। यह तो माना कि कृदन्त क्रिया सिद्ध होती है और तिङन्त “साध्य । परन्तु एक