पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/४५४

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नपुंसक लिङ्ग प्रयोग किया जाता है-पठनम् । हिन्दी में पुल्लिङ्ग ‘पढ़ना' ।।

  • पाठः’ पुल्लिङ्ग में और ‘धारणा' स्त्रीलिङ्ग में भी लिङ्ग-विवक्षा नहीं हैं ।

‘पाठ:' का रूप 'रामः' की तरह है; इस लिए पुल्लिङ्ग और धारणा है।

  • सुशीला' की तरह; इस लिए स्त्रीलिङ्ग । वस्तुतः यह तुथो धारणा

क्रियाएँ हैं। उन में कोई स्त्रीत्व-पुंस्त्व का भेद नहीं । जैसर पुरुष का पढ्दा, वैसा ही स्त्री का; वैसा ही पुरुषों का, वैसा ही स्त्रियों झा । “पढ़ना' क्रिया की गिनती भी नहीं हो सकती । उस में ‘पुरुष-भेद भी नहीं। परन्तु जब किसी क्रिया का वाचक कोई शब्द बोला जाए , तो अवश्य ही उस को कुछ रूप हो गा। उस के इसी रूप को ‘वाच्य' कहते हैं । | क्रिया के निकटतम दो ही कारक हैं-कर्ता और ऊर्म । क्रिया इन्हीं पर होती है। क्रिया का प्रभाव या फल इन्हीं पर पड़ता है। ‘राम पुस्त पढ़ता है' में क्रिया का फल झर्तृगामी हैं। राम’ को पुस्तकीय ज्ञान होता है। राम चावल पकाता है' यह क्रिया का फल चावलों पर है। चावल ही दूसरी स्थिति में आ रहे हैं। गोविन्द काशी गया। यहाँ 'गोविन्द' पर क्रिया का फल है । वही स्थानान्तरित हुआ है । फाशी' ज्यों को यों है । कभी क्रिया का फल दोनो पर पड़ता है । सो, ये ही दो कारक क्रिया के अतिशय निकट हैं। फलतः वह इन्हीं के अनुसार रूप ग्रहण करती है । अन्य कारकों से कोई मतलब नहीं, रूप-ग्रहण करने में । जब कर्ता के अनु- सार क्रिया रूप ग्रहण करती है, तो कर्तृवाच्य” कहलाती है और जब कर्म का अनुगमन करती है, तो ‘कर्सवाच्य' । कर्तृवाच्य’ को ही कर्तरि प्रयोग कहते हैं और कर्मवाच्य’ को ‘कृर्भणि प्रयोग ।। अभी-कभी क्रिया न कर्ता के अनुसार चलती है और न फर्म के । वह स्वतंत्र पद्धति ग्रहण करती हैं। तई उसे भाववाच्य कहते हैं-भावे प्रयोग । १–कतृवाच्य | कृदन्त और हिन्द क्रिया के ‘वाच्य-रूप भिन्न-मिन्न होते हैं। उदा- हरण के लिए वर्तमान काल की ही क्रियाएँ ले लीजिए, जो कि ‘कर्तृवाच् होती हैं। 'राम चतुर हैं' “तुड़ी सुशील है' और 'लड़के चतुर हैं। लई कियाँ सुशील है’ ! इन उदाहरणों में हैं। तिङन्त क्रिया कर्तृवाच्य है । कर्ता के अनुसार उस के पुरुष-अर्चन' हैं। मैं अनभिज्ञ हूँ और तुम चतुर हो