पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/४६३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
(४१८)

(४१८ ) नये-नए’ तथा नयी-नई' में भी यु’ का बैकल्पिक लोक है; क्योंकि 'नवर के व को यह य् वर्ण-विकार से है ।। सो, 'जिये-जिए' में 'इयु' तथा 'यू' का वैकल्पिक लोप; क्योकि धातु के ई’ को ‘इयू आदेश हुआ है और उसी का अंश यह ‘य' है ।। | ‘छुए' में भी ‘छू' के ऊ’ को ‘उवु’ है और व’ का नित्य लोप; क्योंकि 'उ' के अनन्तर ब्’ का उच्चारण १ ‘छुवै’ ) वैरस्थ पैदा करता है। मध्यम पुरुष के बहुवचन में ‘इ’ को ‘उ' और फिर उस ( 'उ' ) को

  • ओ' हो जाती है---

“तुम कपड़े धोओ और तब सोको उत्तम पुरुष के एकवचन में वही 'ऊँ'-- मैं सो, वा कपड़े धोऊँ ? विधि आदि के द्योतन में जिस “इ' प्रत्यय का उल्लेख ऊपर हुआ है, अइ ‘पठेत् श्रादि के “इथू का ही रूपान्तर है, ये का लोप फर के। जैसे

  • पर्वतीय' आदि से ईय' ले कर और ‘य' कृा लोप कर के ई' तद्धित प्रत्यय

हिन्दी ने अपना बना लिया और अपने पहाड़' आदि शब्दों में लगा कर पहाड़ी' जैसे शब्द बनाती है, उसी तरह इयु के 'इ' से पढ़े' आदि क्रिया- पद। परन्तु बन्धुवर डा० इञ्जारी प्रसाद द्विवेदी ने मुझे सलाह दी कि विधि में ‘इ' प्रत्यय न रख कर सीघा २' रखा जाए, तो अधिक अच्छा रहेगा; क्योकि सोए दबाए ‘पढ़ाए आदि में ‘ए’ स्वतः स्पष्ट है। इ’ को ‘ए’ झरने की झंझट बच जाए गी और पढ़' आदि अकारान्त धातुओं में गुण की जग्इ अन्त्य-लोप से काम चले जाए गा । द्विवेदी जी ने जो सलाह दी, ठीक है। मेरे मन में भी पहले ( *सोर आदि देख कर } ‘ए’ प्रत्य' की ही कल्पना हुई थी। साफ चीज है। परन्तु ‘इय्’ का ध्यान कर के और हिन्दी की कई बोलियों में करे’ ‘करई' चिधि के रूप देख कर 'इ' प्रत्यय ही रखा । इन बोलियों में म० पु० के बहुपचन में ऋ--उ-करी' तथा उ० पु० एकचन में करहुँ-करउँ-करौं रूप होते हैं। ‘हलो से हिन्दी में करी-करूं'। इन बोलि में वर्तमान काल के भी ‘करहि- इ-फरै* रूप होते हैं। यह 'हि' प्रत्यय 'है' का सिा हुआ रूप है | ‘पठति