के ‘त्' को उड़ा कर भी इ' की कल्पना की जा सकती है--‘पढ़इ-पढ़े । हू
के आगम से पढ़हि’ भी । चाहे जैसे समझिए, वर्तमान काल के ‘पढ़हि,
पढ़ई, पढ़े' से विधि के “पढ़इ” पढ़हि पदै’ रूप अलग हैं । 'पढ़े' ( विधि )
का ही कोमल रूप ‘पढ़े है । यहाँ ‘इ ‘ए’ इन दो प्रत्यर्यों में से कौन रखा
जाए; विचारणीय है। प्रकृति-प्रत्यय का भेद व्याकरण में काल्पनिक होता
है; समझाने के लिए । “पढ़ि है' श्रादि में 'है' का आद्य व “इ” है । पूरध में
राम न पढ़ी के भविष्यत् ‘पढ़ी' में भी ‘ई है। यों व्याकरण का ख्याल कर
के–‘पढ़े-‘कृ’ श्रादि में इ” प्रत्यय ही ठीक समझा ! 'ए' करने से पढ़'
श्रादि के अन्त्य ‘अ’ का लोप करना पड़ता; 'इ' से गुण-सन्धि । सो, ‘ए’ में
प्रक्रिया-लाघव भी नहीं हैं।
| ‘इए' प्रत्यय भी तिङन्त-विधि में है-ऐसा काम न करिए किं पछताना
पड़े। ‘करिए'–करना चाहिए। प्रार्थना में ‘क्रीलिए होता हैं---‘ऐसा
काम न कीजिय' | ‘भविष्यत्-प्रार्थना' में—न कीजिए गा'। यह ‘इ
भावप्रधान प्रत्यय है । ऋर्ता *श्राप’ होने पर भी कीजिएँ नईं होता । ऐसे
काम आप न कीजिए' में ‘काम’ के अनुसार भी बहुवचन नहीं। ‘चाहिए में
भी यही बात है। अब बहुत्व कृर्म में सूचित करना होना है, तो चारो वेद
पढ़ने चाहिए सब विद्याएँ पढ़नी चाहिए प्रयोग होते हैं। कृरिए-
कीजिए' का 'ए' जनपदीय बोलियों में “य' के रूप में रहता है-'करिय न सोच
विचारु' कीजिय ने नेह की कोर' । परन्तु कीजिये ब्लीचिये श्रादि
लिखना गलत हैं। ' के साथ 'ए' प्रमाणप्राप्त नहीं है। हमें कुछ
अध्यापक चाहि' में चाह इच्छार्थक को रूप है----हम कुछ अध्यापक चाहते
हैं-उन की जरूरत है। जरूरत की चीज ही इच्छा का विषय होती है ।
- आप को न चाहे, ताके बाप को न बाझिए' में चाहिए” प्रेमार्थ वाह' हैं ।
‘अप को ऐसा न करना चाहिए' में चाहिए औचित्यर्थक क्रिया है । युज्यते' के अर्थ में यई हिन्दी की चाह’ तु सामने हैवाझिय जहाँ रिसिन र बास । | ‘इयो' प्रत्यय एक भिन्न हैं, जिस में विंध्यत्-प्रार्थना प्रेम से भरी रहती है। सँदेसो देवकी स कहियो’ | यह प्रत्यय ब्रजभाषा श्रादि में खूब चलता है। कीजिथो’ ‘चुलियो' श्रादि में - देख कुर लोग ‘कीजि तथा चलिए श्रादि के सिर भी ( ‘’ ) थोप देते हैं !---चलिये-‘कीजियें जैसे रूप लिखते हैं यह गलत है। गये'-गए और गयी.गई वैकल्पिक रूप ठीझ कहे।