पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/४६६

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( ४२१ } एकान्त धातुओं के अन्त्य ‘’ को भी ह्रस्व “इ” हो जाता है--लेता है--लिया है । राम ने आम ‘लिया' । । पढ़, उठ, बैठ श्रादि घातुओं के रूप प्रेरणा में पढ़ा, उठा, बैठा जैसे अकारान्त हो जाते हैं और तन्ने इन के आगे से थ' प्रत्यय लुप्त नहीं होता -- पढ़ाया, उठाया, बैठाया आदि ।। | ‘मर' धातु से भूतकाल का रूप भरा बनता हैं । इस हिसाब घे कार’ का भी करा' होना चाहिए; जैसा कि किसी-किसी जनपद में होला भी जाता है---‘काम करा' *भलाई करी' । ठीक बात है; परन्तु इस सिद्धान्त के बनने से पहले ही किया रूप बन चुका था। हिन्दी ने सब से पहले 'कृत' के

  • किय’ में ही अपनी पु’ विभक्ति लगा कर किया रूप भूतकाल को बनाया--

चलाया । फिर इसी के य’ को प्रत्यय मान कर सभी धातुओं ॐ श्रथा ‘सोया' आदि रूर बने । 'सर' का ‘मृत्धा बोलने में अटपटा लु, तच भरा हो गया | परन्तु कर' से 'कारा' नहीं बना; क्योंकि किया तो पहले ही इन चुका था । ब्रजभाषा में ‘उड्यो' लिख्यो' आदि रूप चलते ई; भयो' वयो” आदि भी; परन्तु वहाँ भी ¥यो' नहीं----‘कियो' ही चलता है। इस से भी पुष्टि होती है कि कृत> किय> किया-कियो' से ही येई प्रत्यय लिया गया है। | इस ‘य” प्रत्यय की प्रयोग--पद्धति प्रायः संस्कृत की-सी ही है। हिन्दी की 'ने' विभक्ति संस्कृत के 'बालकेन' के 'इन' से बनी है; यह बतलाया जा चुका है। संस्कृत में अकर्मक धातुओं से प्रकृत 'त' प्रत्यय कर्तरि होता है । अर्थात् अकर्मक क्रियाओं के भूतकालिक त-प्रत्ययान्त रूप कर्तृवाच्य होते हैं---- फत के लिङ्ग-वचन का अनुसरण करते हैं । ठीक यही स्थिति हिन्दी बालकः सुतः, बालिका सुप्ता, बालकोः सुतः लड़का सोया, लड़की सोथी, लड़के सोये ।। सकर्मक क्रियाओं के प्रयोग संस्कृत में फर्मवाच्य होते हैं--कर्म के अनुसार क्रिया के लिङ्ग-वचन रहते हैं- सीतया ग्रन्थः पठितः, रामेय संहिता पठिता हिन्दी में -- सीता ने ग्रन्थ पढ़ा, राम ने संहिता पढ़ी।