पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/४७५

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{ ४३० ) इस की उत्पत्ति न ‘गा' से है और न गत्यर्थक 'ग' से ही ! गतः भूत काल की क्रिया से भविष्यत् के 'ग' प्रत्यय का क्या मेल ? ब्रजभाषा में 'ओ' विभक्ति से शो रूप होता है । ‘पदै गो’--‘पदै गी' आदि । उत्तर--प्रदेश के पूरबी अञ्चलो में भविष्यत् के लिए ‘इ है' तिङन्त प्रत्यय चलता है-*करि है, उठिहै' श्रादि । धातु के अन्त्य 'अ' का लोप ।

  • म सब काम करिहै' और 'देवी सब काम करिहै' । ( तिङन्त प्रत्यय होने

से ) लिङ्ग-भेद से रूप-भेद नहीं । बहुवचन उसी तरह स्वर को अनुनासिक कर के--- *धिका जी हैं, तो जी हैं सबै, न तौ पी लाइल नन्द' के द्वारे । जे एँ गी’ ‘पीएँ गी' में और ब्रजभाषा जीवें गी’ पी वी आदि में वह मनु- रता नहीं है, जो ‘ली ई-दी हैं' में । वर्ण-लाघव भी है। इसी लिए साहित्यिक ब्रजभाषा नै यथास्थान “इ है' पाञ्चाली का तिङन्त-प्रत्यय अपने मधुर साहित्य में अपना लिया है। जी हैं 'पी' में यहाँ विशेषता भी है। पुंस्त्री-भेद न होने से प्रतीत होता है कि सभी ब्रजवासी नन्द के द्वार पर आत्महत्या कर ले गे, यदि उन्हो ने कृष्ण के साथ राधा को संबन्ध स्वीकार न किया ! कारण, उस स्थिति में राधा तो रहें गी नहीं, तब और सब लोग जी कर क्या करे गे !

  • श्चिये गी' या 'जीर्दै ग’ और ‘पिएँ गी' या ‘पी बी' कर देने से यह बात

न रहती । व्यापकता कम होने से जोर भी कम हो जाता। मिठास भी

  • जी-पीई' में है। परन्तु यह नहीं है कि ब्रजभाषा ने अपने ‘ग' प्रत्यय

झा बहिष्कार कर दिया हो ! वह भी खूब चलता है----‘एहो नन्दलाल, कुरबान तेरी सूरति पर, हौं तौ मुगलानी, मैं हिन्दुवानी & रह गई मै' जैसे प्रयोग खुब चलते हैं। यहाँ रहौ गी’ बड़ा भला लगता है -रहिहौ' से भी अच्छा लगता है। रहिहौ' में दो ‘ह' ( महाप्राण ) व्यञ्जन इकई हो कर कुछ कर्कशता पैदा कर देते हैं ! सो, यह ब्रजभाषा की बात हैं। राजस्थान में 'गो' ही चलता है; इहै। अादि नहीं । राष्ट्रभाधा ने इहै' प्रत्यय स्वीकार नहीं किया हैं । यहाँ ‘ग' का ही सर्वत्र अधिकार हैं । इहै' प्रत्यय कानपुर-कन्नौज ( पाञ्चाल ) में खूब चलता है । यह प्रदेश बन तथा अवध के बीच में है । अवध में “इहि” तथा “इइइ’ चलते हैं • करिहहि“करिहइ अादि । सन्धि कार के आगे ‘इई' चला--