पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/४७८

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( ४३३ } परन्तु ‘करना’ पुल्लिङ्ग-एकवचन ‘इए' आदरपूर्वक प्रार्थना में आता है; ग' लगा देने से भविष्यत् काल अ चाता है—जाइए गा और बातें कीजिए गा' । ‘इप-प्रत्ययान्त क्रिया का कर्ता सदा ‘आप’ रहता है। परन्तु इस न' कृदन्त प्रत्यय की क्रिया का कर्ता सदा तुम रहता है । 'न' प्रत्यय मैं पुंविभक्ति–ना' | ‘अभी सोना नहीं, कुछ पढ़ना-लिखना' । सोना-जागना चलता ही रहता है' आदि में ‘सोना-जागना’ भाववाचक संज्ञाएँ हैं । यह भी 'न' प्रत्यय भावे' है; परन्तु उपर्युक्त 'न' प्रत्यय इस से भिन्न चीज है—देशात्मक क्रियाएँ बनता है। क्रियान्तर की आकाङ्क्षा नहीं; आख्यात है-वहाँ जाना और कहना ..." ।। ‘न’ अवश्य-कर्तव्यता या क्रिया की अनिवार्यता जब किसी क्रिया की अनिवार्यता या अवश्यकर्तव्यता प्रकट करनी हो, तो धातु से 'न' प्रत्यय होता है। यह प्रत्यय या तो कर्मवाच्य होता है, या भाववाच्य । क्रिया का सम्पादन आवश्यक है, इसी लिए कत के अधीन ( कर्तृवाच्य ) क्रिया-पद नहीं होते- राम को वे सब काम करते हैं। मुझे अभी सन्ध्या करनी है । सुशीला को अाच सितार बजाना है। सर्वत्र कर्म के अनुसार करने’ ‘करनी' तथा 'बज्ञाना’ क्रियाएँ हैं । ६ का योग केवल कालनिर्देशार्थ । 'ई' भी यहाँ कर्मवाच्य ही है–तिङन्त-कर्म- वाच्य । कर्म के अनुसार पुरुष-वचन बदलें गे। मूल क्रियाएँ कृदन्त कर्म- वाच्य और सहायक ( है ) तिङन्त-कर्मवाच्य ।। भाववाच्य--- १--सब लड़ को सबेरे उठना है। २-लड़कियों को पूजा करने जाना हैं। ३-हमें रात भर जागना हैं।