पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/४८

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तथा बाबू मैथिलीशरण गुप्त की रचनाओं में जो हिन्दी है, उसके साथ प्राकृत ( सुघारण ) जनों को चलतू हिन्दी को रख कर देखिए, कितना अन्तर है ! एक ही भाषा है, पर अन्तर है। एक रूप को संस्कृत या शिष्ट साहित्यिकों की भाषा कहेंगे, दूसरे रूप को प्राकृत या साधारण जनों की भाषा । संस्कृत या शिष्ट जन भी बाजार में वही भाषा बोलते हैं, जो कि दूसरे लोग । कभी-कभी अपने छाव्यों में और भाटकों में भी साधारण भाषा का प्रयोग शिष्ट जन करते हैं, वैसा कुछ प्रलंग आने पर ! ग्रामीण पत्र के मुख से नाटक में सुसंस्कृत हिन्दी का प्रयोग करने से तो नाटककार अपना उपहास करा लेगा । कहने का तात्पर्य यह कि एक ही भाषा के ( व्यवहार-भेद से ) कई रूप हो जाते हैं--साधारण भाषा, शिष्ट-भाषा, साहित्यिक भया ! जव मूल-भाषा में बेद-जैसे उत्कृष्ट साहित्य की रचना होने लगी, तो उसका रूप संस्कृत हो चला । साधारण जनों की भाषा वही प्राकृत रही। साहित्यिक भाषा की व्याकरण बनता है, उसकी व्यवस्था होती है, जिससे कि वह ( साहित्य ) बहुत दूर-दूर तक और लंबे से लंबे समय तक लोगों को अनन्द दे सके । सब लोग उसका अर्थ और मर्म समझ सके, इसलिए झापा में पदों तथा वाक्यों की व्यवस्था की जाती है। परन्तु प्राकृत जनों की भाषा एक उद्दाम नदी की तरह अपनी स्वतंत्र गति से चलती रहती हैं। इस लिए मार्ग बदलती रहती है । साहित्यिक मापा एक बड़ी नहर समझिए, जो कि व्यवस्था में चलती है । इसके मार्ग आदि में वैसा परिवर्तन नहीं होता है। परन्तु फिर भी, बहुत लंबे काल में कहीं कुछ परिवर्तन सम्भव है ।। सो, मूल भाषा के दो रूप हो गए-वेदों की संस्कृत भापा और लोक- व्यवहार की साधारण ‘प्राकृत-भाषा' । संस्कृत भाषा में बहुत धीरे-धीरे थोड़ा- चहुत परिवर्तन हुआ ! साहित्यिकों की भाषा एक ही काल में भी परस्पर भिन्न- रूपता ग्रहण कर लेती है, कालान्तर की तो बात ही क्या ! परन्तु यह रूप- परिवर्तन कृत्रिम होता है । जन-भाषा का रूप-परिवर्तन अकृत्रिम (स्वाभाविक होता है। वैदिक-संस्कृत झागे चल कर उस रूप में आई, जो कि हमें ‘ब्राह्मण-ग्रन्थों में तथा उपनिषद में प्राप्त हैं। आगे चल कर वह रूप हुआ, जो वाल्मीकि की रामायण में तथा व्यास के ‘भारत' में है। इस साहि- त्यिक भाषा को भगवान् पाणिनि ने ऐसा व्यवस्थित कर दिया कि लोग देख कर दंग रह जाते हैं। पद-पद की व्यवस्था ! पाणिनि-व्याकरण का ही यह प्रभाव है कि ऐसे उत्कृष्ट साहित्य के मधुर-ओजस्वी दर्शन हमें अर्वाचीन