पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/४९

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काल में हो सके। प्रत्येक पद व्यवस्थित । न कहीं अर्थ में झंझट, न अभ- सन्देह । बड़े हैं: मोहक रूप में संस्कृत प्रकट हुई। यदि पाणिनि का वह अ- लोकसाधारण उद्योग प्रवाट न होता, तो संस्कृत का रूप न जाने क्या है। क्यः ही जाता ? यों संस्कृत को यहाँ स्थिरता प्राप्त हो गई, जो कि साहित्य के लिए अत्यन्त न्नावश्यक थी । अब उस प्राकृत को देखिए, जिसका संस्कार करके ऋपियों ने उस रूप में अपनाया था। मूल-भाषा के जन-गृहील रूप को हमने ‘प्रकृत” कहा है। साधार; बोल-चाल की भाषा में रूप-परिवर्तन देश-काल के अनुसार सदा होता रहता है। परन्तु यह परिवर्तन इस गति से होता है कि सहसा लक्षित नहीं होता सहस्रों वर्षों के अनन्तर जान पड़ता है कि श्रोह ! इतना परि- वर्तन हो गया !' श्रापके जीवन से भात्रः का जीवन बहुत बड़ा है। लाखों- करोड़ों में अच्छी मापा जीवित रहती है। तभी तो सहस्रो बर्षों में रूप परिवर्तन दिखाई देता है । अापका जीवन अधिक से अधिक सौ बच्चों की है। न ! आपके शरीर में प्रति दिन परिवर्तन होता है; परन्तु कुछ भालूम देता है ? 'दस-पाँच वर्षों में वह कुछ जान पड़ता है । यही स्थिति भाप्रा की है । काल की ही तरह देश-भेद से भी भाषा बद- लती है, बहुत धीरे-धीरे । झाप प्रयाग से पश्चिम चलें, पैदल यात्रा करें, चार- पॉच मील निल्य श्रगे बढ़े, तो चलते-चलते आप पेशावर या काबुल तक पहुँच जाएँगे; पर यह न समझ पाएँगे कि हिन्दी कह किस गाँव में छूट गई -पंजावी कहाँ से प्रारम्भ हुई—-पश्तो ने पंजाबी को कहाँ रोक दिया । ऐसा जान पडेगा कि प्रयास से काबुल तक एक ही भाषा है। परन्तु यह यात्रा यदि वायुयान से करें और प्रयास से उड़ कर पेशाबर या काबुल उतरें, तो भाषा-भेद से आप चक्कर में पड़ जाएँगे । प्रचार की भाषा कहाँ और काबुल की भाषा कहाँ । इसी तरह पूर्व की यात्रा पैदल करने पर आप हिन्दी की विभिन्न ‘बोलियों में तथा मैथिली-उड़िया-बँगला आदि में अन्तर बैंस न लख पाएँ । यही क्यों, दक्षिण की ओर चलें, तो ठेठ मदरास तक पहुँच जाएँगे, भाद्रा-सम्बन्धी कोई भी अड़चन सामने न आएग्दी । किन्तु वायुयान से उड़ कर मैदरास पहुँचिए, जान पड़ेगर भाषा में महान् अन्तर } श्राप कुछ समझ ही न सकेंगे ।