पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/४८९

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( ४४४ ) अया' में लेने पर नहीं, ‘लाने पर विधेयता है। प्रयोग होते-होते 'ले आय' में और ‘लाया' में भी अन्तर आ गया है । लाना’ क्रिया में दो धातुओं का समास है र सन्धि है । ले - श्री = "ला' । 'ले' के ' का लोप हो गया है । इसी लिए राम ने पुस्तक ली' की तरह ‘ला' धातु के कर्मणि प्रयोग न हो कर अन्तिम धातु के अनुसार कर्तरि होते हैं- १—लड़के पुस्तक लाये-ले आए २-लड़कियाँ कपड़े लाई -ले आई और कोई विशेष बात कहने को नहीं है । क्रियार्थक क्रियाएँ पूर्वकालिक क्रिया के विपरीत, इसे 'उत्तरकालिक क्रिया' कह सकते हैं; परन्तु प्रयोग इसे का पूर्व होता है; इस लिए, भ्रम को बचाने के लिए ‘क्रियार्थक क्रिया' कहते हैं ! संस्कृत में क्रियार्थक क्रिया ‘तुम्' प्रत्यय से प्रकट होती है-पठितुम्, शयितुम् आदि । हिन्दी में भाववाच्य 'न'प्रत्यय इसके लिए आता है। पुंविभक्ति लग कर ‘ना’ और ‘अ’ को ‘ए’--पढ़ने, गाने, बजाने आदि । सभी प्रकार की धातुश्रों से, सभी काल, पुरुषों और वचन में 'ने' प्रत्यय लगता है। पुल्लिङ्ग में और स्त्रीलिङ्ग में भी कोई अन्तर नहीं । जैसे पूर्वकालिक क्रिया में कर’ सर्वत्र, उसी तरह यहाँ 'ने' समझिए । 'कर' का प्रयोग धातु से प्रायः इटा कर किश्रा जाता है; परन्तु ‘ने’ को सदा सटा कर लिखते हैं । 'कर' तो धातु-प्रतिरूप प्रत्यय है; पर यह ‘ना' (>ने ) स्पष्ट प्रत्यय हैं- १-राम पढ़ने काशी जाए या २०–सुशीला पढ़ले काशी गई थी ३-तु आगे पढ़ने कहाँ जाए गा ? ४---मैं व्याकरण पढ़ने कहीं नहीं गया पढ़ने-पढ़ने के लिए। बचन'—विवेचन यहाँ तक जो कुछ कहा गया है, उस से वचन' बिलकुल स्पष्ट हो गए इस लिए वचन' का पृथकू क्या विवेचन किया जाए ? हिन्दी में 'वचन'