यदि ऋग्वेद के निर्माण-काल के किसी जन को इतना लंबा जीवन मिल जाता कि आज हम लोगों के बीच होता, तो उसे उस सून्न भाषा में और अाज की भा १ हिन्दी ) में कुछ अन्तर सरलूस ही न देत । इतने लंबे जीवन में वह अपनी वह मूल भाषा भूल भी चुका होता । एकै सपने की सी याद रहती उसे कि पहले कुछ ऐसा बोलते थे । परन्तु इमें कितना अन्तर दिखाई देता है ?
हिन्दी का विकास
अब आप सीधे हिन्दी के विकास-मार्ग पर श्री जाइए।
'मूलु भा' का नाम तब “प्राकृत भापा' रखा गया, जब कि उसका एक
रूप कृत ' छहलाने लगा । इस प्राकृत-भाषा का विकास या रूपान्तर
देशकल-भेद' से होने लगा----होते-होते एक युग बीत गया । वैदिक काल की
प्राकृत का कुछ अाभास ( वेद के } *राथा' छन्दों में मिलता है, ऐसा माना
जाता है ! सम्भव हैं, उस समय प्राकृत में भी सामान्य साहित्य-रचना होती
हो और उसके लिए कोई विशप शून्द निर्धारित हो गया हो और वही
गाथा' हो । अब भी ऐसा देखा जाता है कि शिष्ट ? साहित्यिक } भाप के
अतिरिक्त जनपद की अपनी प्रकृत भाषा में भी कुछ गीत अादि बनते-चलते
रहते हैं । ब्रजयापा-साहित्य देश भर में फैला हुआ है। ब्रज की बोली
सँवार-बना कर 'ब्रजभाषा बनायी गयी है । ब्रज की बोली में और इस
साहित्यिक ब्रजभा में कुछ स्वरूप-भेद हो गया है; यद्यपि मूलतः दोनो एक
ही है। ब्रज में बगदना' जैसी क्रियाएँ । क्रिया-शब्द ) खूब प्रचलित हैं,
परन्तु इसके साहित्यिक रूप प्रापा ) ने इन शब्दों को दूर रखा है।
अज की बोली में जो गीत बनते हैं, उनमें ये शब्द सजे के चलते हैं---
चल रहे हैं—बादि यो पुलिया के मेन सरसीलो भरतार । गर्दि
यो'–लौट गया। ऐसे छन्दों को ब्रज में रलिया' कहते हैं। उत्तर
प्रदेश के मिजीपुर-जिले में चोर उसके इधर-उधर के जनपद में कजरी' नाम
का एक गेय पद बहुत रुङ्केि से गाया-मुना जाता है। कजरी वहाँ की
जनपदीय भाषा या बोली में ही सुनें, वहाँ की साहित्यिक साषा ( हिन्दी
यानी राष्ट्रभाषा ) में नहीं। इसी तरह उत्तर-प्रदेश के कानपुर-उन्नाव आदि
जिलों में ‘बिरहा' नाम का एक मधुर-सरस छन्द यहाँ की अपनी बोली में
चलता है। बड़े-बड़े साहित्यिक इन { रसिया, जरी तथा बिरहा श्रादि )