पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/४९१

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( ४४६ ) से ही क्रिया कर्म-वाच्य स्पष्ट है। स्त्रीलिङ्ग में भी मुख्य क्रिया से ही बहुख सूचित होता है- राम को अच्छी पुस्तकें पढ़नी चाहिए कर्म-कर्तृक प्रयोग में - अच्छी पुस्तकें घर में रहनी चाहिए जैसे अच्छे ग्रन्थ रहने चाहिए; उसी तरह ‘पुस्तकें रहनी चाहिए । ‘ग्रन्थ पढ़ने चाहिए'-पुस्तकें पढ़नी चाहिए । ‘इए' प्रत्यय भाववाच्य तिङन्त-पद्धति का है; इसी लिए स्त्रीलिङ्ग- पुल्लिङ्ग में समान रहता है-“हमें सुधा चाहिए, फ्रछी नदी कि ‘चहिय सुधा’---‘चहिय अम’ अवधी, में । हाँ कोई' के अर्थ में प्रयोग अवधी में है और चांहि रसिन्ह कर वासा मैं औचित्य-अर्थ में; परइथ’ उमत्र अवधू है। यहीं ‘इय' राष्ट्रभाषा में । 'श्रींप को न चाई, ताके बाप को न चाहिए यहाँ चाह’ स्नेहर्थिक है; र 'वाहिए' में इर' वही है । बहुत दिन पहले की बात है, ‘चाहिए' को एकरस रहता देख कर मैं ने इसे क्रियाप्रतिरूपक अग्धेय बतलाया था । अव्यय के रूप महीं बदलते और क्रियाप्रतिरूपक अव्यय संस्कृत में तथा हिन्दी में हैं भी । परन्तु भाववाच्य क्रिया का रूप भी कभी नहीं बदलता जब आगे चल कर प्रत्ययों का वर्गी- कारण किया और बैठिएपढ़िए अदि अकर्मक-सकर्मक सभी क्रियाओं में इसे देखा, तो चाह’ घातु से भी यह ठीक समझा । यानी चाहिए? को क्रियाप्रतिरूपक अव्यय मानने की जरूरत नहीं, जब कि सभी धातुओं से “इए भाववाच्य प्रत्यय होता है। इस चाइ' धातु से अन्यत्र ‘इयत' जैसे भावाच्य तिङन्त प्रत्यय भी होते हैं- रहिमन करुए मुखनि झौं, | चहियत इहैं सजाय 'सज्ञाय ( खज़ा ) स्त्रीलिङ्ग है। पुल्लिङ्ग और बहुवचन में भी वहि- ” ही रहे. गा-चहियत चाहि सबै सुख-जिसे सभी सुख चाहिए | पर