पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/४९२

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{ ४४७ ) थह ‘इयत' ब्रजभाषा की चीज है । प्रसंग से बात आ गई । राष्ट्रभाषा में ‘इए' प्रत्यय ‘चाई से होता है--‘चाह’ से भी होता हैं कईनी चाहिए। यह कभी भी चाहिएँ नहीं होता } चाहिएँ लिखना गलती है। एकवचन-बहुवचन के भ्रम क्रियाओं की ही तरह संज्ञाओं में भी होते हैं और इसी लिए लोग दम्पति को दम्पती' कर देते हैं । विशेषण में भी भ्रम हो जाता है, बचन-संवन्धी ! उदाहर --- ‘अनेझ' और 'अनेकों हैं। अनेकों ने अने’ को गलत बतलाया है ! वे अनेक ने’ शुद्ध बताते हैं ! कहते हैं, 'अनेक शब्द तो स्वतः बहुख में हैं, तब बहुत्न-सूचनार्थ श्री लगाने की क्या जरूरत ? परन्तु ‘लैक' सइली’ ‘ला' यदि * * ‘सैकड़ों जगह लोग इड़े थे' की तरह ‘अनेकों जगह लोग मस्त दिखाई दिए’ भी ठीक है। सैकड़ो ने तो पानी भी नहीं धिया' की ही तरछ ‘अनेको को तो मैं ने पानी दिलाथा' भी ठीक है । सैकड़ा और सैकड़ों में श्रन्तर है; वही अन्तर अनेक' और अनेक बहुत्व-बोधन के लिए यही *ओं लड़कों ने श्रादि में ‘विकरण' बना है। संख्या का आधिक्य बोध कराना इस का काम है। परन्तु अनेक जब अनिश्चित बहुत्व का बोधक है, तब ‘ओं' किस लिए बस दुचारू' आदि तो निश्चित संख्याओं के वाक है। इस लिए ( उस निश्चित संख्या से ) अधिक झा बोध करने के लिए श्र' ठीक, परन्तु अनेक' शब्द तो कैंस हैं। ही नहीं ! अब अनेक मठ-मन्दिर मैं ने देखे अादि में अनेझ' या गलत है ? नहीं, अनेक बिलकुल सही प्रयोग हैं। ‘अनेक शब्द मूलतः निश्चित संख्या दो झा बोधक है । एक से अधिक अनेक ~~ यानी दी। | ‘द के दुर्ग से टकरा कर भागे अनेक' झी स्वाभाविक शक्ति न जाए गी। धनञ्जय के दश-रूपक' में ( कुम्भक' के मैद-निरूवा में ) के कारिका की पंक्ति है- एकानेंककृतः शुद्धः यहाँ ‘अनेक' शब्द का अर्थ 'दो' ही लिया गया हैं । व्याख्याकार धनिक ने लिखा हैः--