पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/४९३

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( ४४८ ) केन द्वाभ्यां वा मध्यमपात्राभ्यां शुद्धः यदि आप को कहीं कोई लिख दे कि “मैं आप को अनेक अपने मकान देने का वायदा करता हूँ तो कोई भी अदालत दो से अधिक नहीं दिला सकती । यही स्थिति संस्कृत के “बालकाः आदि बहुवचन की है। यदि कोई निश्चित संख्या न दी गई हो, तो बहुवचन से ‘तीन' की ही संख्या ली जाएगी। पूर्वमीमांसा' के 'कपिञ्चलाधिकरण में यही सिद्धान्त स्थिर किया गया है। कपिञ्जलानाल भेत'-तीतरों का आलम्भन करना चाहिए--- इस वाक्य में कोई निश्चित संख्या नहीं दी गई है । तब कपिञ्जलान्' इस बहुवचन से कितने तीतर (कपिञ्चल) समझे जाएँ; यह समस्या | विचार कर के निर्णय दिया गया---'केवल तीन' । यदि अधिक संख्या अभिप्रेत हो, तो स्पष्ट उस का उल्लेख हो या । सो, अनेक शब्द निश्चित रूप से दो' का वाचक है । उसे से अधिक की संख्या बोध कराने के लिए श्र’ तद्धित प्रत्यय है-'अनेकों’--चार-छह, था इस से कुछ अधिक । परन्तु लोग अनेकों' के स्थल में भी अनेक का प्रयोग कर देते हैं---‘दो से अधिक के अर्थ में भी और उन का मतलब हम समझ भी लेते हैं । परन्तु फिर भी अनेक शब्द कुछ ही आगे बढ़ सकता है-दो नहीं, दो-चार सही ! चार-पाँच' या इस से अधिक का बोध अनेकों से ही हो गा । | ऐसी अयोरा-संबन्धी सैकड़ों बातें हैं, जिन पर विचार करने को यह स्थल नई । औषधनिर्माणशाला में औषधों के निर्माण पर ही ध्यान दिया जाता है; उन के प्रयोग पर नहीं । श्रौषध ठीक बनी कि नहीं; इतना भर निर्माण शाला में देखा जाए गा । कौन औषध कहाँ, किस रोग में दी जाए; यह प्रयोगमीमांसा चिकित्सा--क्षेत्र का विषय है। साधारण औषध में और उस के स्वर्ण घटिंत रूप में क्या अन्तर है; कहाँ किस का प्रयोग करना चाहिए। यह सब चिकित्सा विज्ञान है। इसी तरह शब्द-इत्र के व्याकरण, भाषा- विज्ञान तथा प्रयोग-मीमांसा आदि भेद हैं। यह व्याकरण-ग्रन्थ है; परन्तु ऐसा कि जिस में यत्र-तत्र भाषा-विज्ञान तथा प्रयोग-सीमांसा के भी कण हैं | किसी भी शास्त्र की प्रारम्भिक अवस्था में ऐसा होता ही है। आगे चल कर जब विकास होता है, तब विषय-भेद से पृथक्-पृथक् शास्त्र बनते हैं । हिन्दी में अभी व्याकृर, निरुक ( भाषाविज्ञान ) तथा प्रयोग-मीमांसा आदि प्रारम्भिक अवस्था में ही हैं । यह पुस्तक भी प्रारम्भिक स्थिति की ही है ।इस में