पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/४९५

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( ४५० ) जैसा कि ‘बैठ' तथा 'पैठ' का जिक्र करते हुए कहा गया है, 'विष्ट'- “प्रविष्ट' जैसे कृदन्त से हिन्दी के बहुत से धातु मेल खाते हैं। यह तो तर्कसम्मत बात नहीं कि “उपविष्ट' तथा 'प्रविष्ट' जैसे संस्कृत कृदन्त शब्द जनभाषा में आए हों और उन से फिर बैठ” “पैठ' आदि धातु बन गए हौं । जनता की धारा स्वतंत्र चलती है। संस्कृत शब्द-एक धारा के हैं, हिन्दी शब्द' दुसरी के । मूल स्रोत दोनों का एक ही है । उस मूल स्रोत से निकली हुई चीज दो भिन्न धाराओं में बहती-चलती कुछ का कुछ रूप ले सकती है । मूलभाषा में जो शब्द चलते थे, उन के कितने समीप पैठ है और कितने ‘प्रविष्ट'; नहीं कहा जा सकता । सम्भव है, ‘प्रविष्ट के लिए जो शब्द मूल-- भाषा में रहा हो, उसी से हिन्दी को 'पैठ बन गया हो ! परन्तु उस “मूलभाषा' के अतिशय समीप बो भाषा हम जानते हैं-‘ऋग्वेद' की भाषा है। ऋग्वेद में ( और इतर वेदों में भी तथा प्राकृत-साहित्य में भी ) हिन्दी धातुओं के भाई-बन्धु मिल सकते हैं। परन्तु प्रचलित संस्कृत-साहित्य से जहाँ तक संबन्ध है, कुछ दिग्दर्शन मनोरञ्जक रहेगा। १--‘पहन' हिन्दी की प्रमुख प्रचलित धातु है—“राम घोतीं पहनती है। जैसे प्रविष्ठ' से 'पैठ' है, उसी तरह संस्कृत ( भाववाचक संज्ञा )

  • परिधान से पहन' का संबन्ध है-“पू अ र इ ६ मा २ अ य आठ मूल

अक्षर परिधान' में हैं । इन में से ‘र' (धू' से ) 'दु’ ‘श्रा' ये तीन अक्षर • उड़ गए; रह गए–'पू अ इ है न अ'। स्वर 'इ' आगे बढ़ कर ‘ह के साथ लग गया और हिन्दी की धातु “पहिन’ 'तयार । 'पहिन' का पहन; जैसे बहिन’ को ‘बइन । | २---‘पहचान'--'मैं तुम को पहचानता हूँ । 'प्रत्यभिज्ञान' से पहचान को संबन्ध है। ऐसा जान पड़ता है कि पूर्व-प्रत्यय' हिन्दी ने मिटाया नहीं है। प्रविष्ट' का ‘ट हिन्दी ‘पैठ में उपलब्ध है और पहिन' पहचान' में भाववाचक आप साफ देख रहे हैं । प्र अ य अ + इ जु ञ श्रा अ ये चौदई अक्षर ‘प्रत्यभिज्ञान' में हैं। इन में से त्' 'यू' “अ” और ( भू’ से ) छ्' इतने अक्षर लुप्त हो गए 1 ‘अ’ भी उड़ गया । इस की तो हिन्दी में कोई स्थिति ही नहीं है। तभी तो 'ज्ञान' से 'जान' धातु--'मैं मानता हूँ” । 'प्रत्यभिज्ञान' के 'ज्ञ' के अवशिष्ट अंश ‘जु’ को चु’ हो गया और आगे के 'आ' से मेल-'पहिचान'। मैं आनता हूँ, पहिचानता हूँ। यह 'पहिचान' फिर मेरठ की ओर ‘पहचान'; 'जान' के मेल से । 'लान-