पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/४९८

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(४५३ ) है। एक अकर्मक, दूसरी सकर्मक । पेट में भोजन स्वतः ‘पचता है। परन्तु ‘गरमी में चावल हमारे यहाँ भी पकते हैं? यहाँ ‘पका मूल क्रिया नहीं, ‘पकाना' का कर्मकर्तृक प्रयोग है। चावल रसोई में अपने आप नहीं पक जाते, कोई पकाने वाला चाहिए। कर्ता की अविवक्षा में चावल पकते हैं' कर्मकर्तृक प्रयोग । 'कर्म-कर्तृक’ प्रक्रिया आगे आए गी ।। यों, एक पच्’ घातु का अनेकधा विकास। संस्कृत में यों विषय- भेद से शब्द-भेद नहीं है । उदरे भोजनं जीर्थति' के अर्थ में भी ‘पच्यते चलता हैं और युवागू पच्यते' में भी ‘पच्यते । हिन्दी में-भोजन पेट में “पवती' है और रसोई में पकता है। पथ मूल क्रिया और ‘पक्क' कर्म- कृतृक प्रयोग; ‘पका मूल धातु का } संस्कृत *पच्’ को स्वरान्त कर के हिन्दी ने अर्थान्तर में उस का प्रयोग किया है। यह भी संभव है ॐि पुर्’ से मूल धातु पक' बनी हो, ‘फल पकते हैं। सूरज की गरमी से । यह प’ मकतूक नहीं है। फल सचमुच स्वयं पकते हैं। ग्रमी हेतु हैं, झारा है, 'करण' या ‘कर्ता नहीं है । ऐसी स्थिति में ‘पकान' को प्रेरणा-रूप मानें थे । | इस दिग्दर्शन से स्पष्ट है कि हिन्दी के धातुओं का विकास विविध प्रकार से हुआ है। यह विकास-विवेचन भाषा--विज्ञान की बड़ी मनोरञ्जक चीज है। साधारण जनों को इस झमेले से कोई मतलब नहीं कि पत्लि कैसे बनी और सोना कैसे बनता है ! उपयोग करने से मतलब ।. थहाँ प्रसंग-प्राप्त एक बात और कह दें। रष्ट्रिभाषा के धातुओं में और अवघी तथा व्रजभाषा आदि के धातुओं में कहीं कुछ अन्तर भी है। राष्ट्रभाषा में जलना क्रिस है; पर ब्रजभाषा में ‘अर' और 'पजर' ये दोनों हैं - ‘जुरत’--जरै’ र ‘पञ्चरन्न’–“पजरै’ ~ दोनो के प्रयोग होते हैं । वस्तुतः | दो घातु मानने की अपेक्षा एक ही के अनुपसर्ग तथा सोपसर्ग रूप मानने में अधिक बल है। प’ को ब्रजभाषा को उपसर्ग मानना चाहिए–संस्कृत 'प्र' का संक्षिप्त रूप । चरत' में “प' उपसर्ग लगाकर पजरत' । जैसे ‘झ्वलति से

  • प्रज्वलति” । “प्रज्वल’ कोई भिन्न घातु नहीं है। परन्तु उठना श्रादि में

उ' आदि को पृथक् उपसर्ग मानना ठीक नहीं; क्यों कि 5 कोई धालु नहीं है। इसी तरह ‘हासना' तथा 'सिराना' आदि क्रियाएँ प्रसिद्ध है। तुलसी के ब्रजभाषा-साहित्य में--‘हासत ही सब निसा सिरानी, कबहुँ न न भरि