पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/४९९

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( ४५४ ) सोयो ।'–विछाते ही बिछाते सब रात बीत गई-कभी भी नींद भर सो न पाया । ‘हासना'-बिछाना । ‘डास-‘कुश । इस की नोक डंक-सा मारती है । डास का ही आसन-‘डासन' भी चलता था। कुशासन' तो अब भी देखने को मिलता है। सन्त लोग मोटा गद्दा-सा कुशों का बना कर भूमि पर' या तख्त पर बिछा लेते हैं---भूमि या तख्त को डस लेते हैं । आगे चल झर ‘डास' ( कुश' ) बिलकुल छूट गया और बिना मात्र अर्थ रह गया । कोमल मुदगुदे रेशमी गद्दे से भी अवध आदि में पलँग डासने लगे । इसी का व्रजभाषा के रूप में प्रयोग है। ‘सिरानी’---बीत गई । “सब निसा सिरानी’----सच रात बीत गई ! यह ‘सिराना क्रिया “सिरा' संज्ञा से बनी है। *सिरा’ किसी चीज का अन्तिम अंश-छोर' । ‘भारत के पश्चिमोत्तर सिरे पर पहले पेशावर था ।' ‘आज कले इस देश का पश्चिमोत्तर सिरा अमृतसर है। यह सिरा’ बना है 'सिर” से। शरीर में सिर ऊपर का सब से अन्तिम भाग है। किसी का इधर यो उधर को अन्तिम भाग *सिरा' । सिरा आ गया --अन्त झा गया। रात. सिरानी’-रात बीत गई ! एक दूसरी ‘सिरादा’ क्रिया व्रजभाषा श्रादि में शीतल' विशेषण से बनी है-*बड़ी बेर भई, दुध सिरानो’- बहुत देर हुई, दूघ ठंढा हो गया । अवधी में सियरान'—उंडा हो गया । ‘सियरे वचन सुखि गए कैसे'.--शीतल बचनें से किस तरह सूख गए। ब्रजभाषा में सीरो दूध' ठंढा दूध ! इसी

  • श्वीरों से नासधातुं “सिरा’----‘दूध सिरानो' । “सिरानो’ की मून धातु सिरा

और उस का कृदन्त विशेष सीरो दूध नहीं कह सकते; क्यों कि “शीतल का विकास सीरो' है और उस से ‘सिरानो' क्रिया । ‘शीतल' का ‘त’ लुप्त और 'ल' को 'र' । 'श' तो 'स' हो ही जाता है। परन्तु राष्ट्रभाषा में इन नामधातुओं का प्रयोग नहीं होता । “यहाँ रात बीत गई’ कहा जाए या--सिरा गई नहीं। बीत'-.-"बीत' से है---- वि+इतबीत’ | ‘बीत जाना संयुक्त क्रिया । स्वाट दास दी' नहीं, ‘खाद बिछा दी' कहा जाए यार | “दूध सिरा गया' की जगह “दूध ठंढा हो गया बोला जाता है।