पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/५१

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ग्राम्य-गीतों को सुनकर मुग्ध हो जाते हैं। इनमें रस होता है। यदि अवसर पाकर कोई साहित्यिक प्रसंगवश कहीं अपने नाटक-उपन्यास में किसी पात्रके मुख से कजरी, बिरहा या रसिया गवा दे, तो राष्ट्रभाषा में खप जाएगा; उसी तरह, जैसे वेद-मंत्रों में ‘गाथा' छन्द । हिन्दी समझनेवाले छ पाठक अनायास कजरी, बिरहा या रसिया छन्दों की भाषा समझ लेंगे, इस लेंगे; यद्यपि यह भी पष्ट देखेंगे कि राष्ट्रभाषा से इन ग्राम्य र प्रादेशिक छन्दों की भाषा में कितना अन्तर है ! कहने का प्रयोजन गई कि वैदिक यु की प्राकृत का कुछ भिसि हमें ‘गुथा में मिलता है। इसके अनन्तर, एक बड़े युग के बाद, हम उसी प्रकृत को ऐसे रूप में पाते हैं कि देखकर आश्चर्य होता है । वैदिक युग की प्राकृत में और इस युग की प्राकृत में अत्यधिक अन्तर है; परन्तु यह स्पष्ट दिखाई देता है कि यह उसी प्राकृत का रूप है। किसी लड़के को आप बारह-चौदह वर्ष की अवस्था में देखें और फिर बहुत दिन बाद उसे युवावस्था में देखें, तो लगेगा कि यह दूसरा ही है; परन्तु ध्यान से देखने पर, अंगों की बनावट, रंग तथा विशेष चिह्नो पर ध्यान देने से आए समझ लेंगे कि यह वही लड़का है, इस रूप में । यही स्थिति इस दूसरी प्राकृत की (प्राकृत की दूसरी अवस्था की) है । भगवान् बुद्ध के कई शताब्दियों पहले से कई शताब्दियों दाद् लक इस प्राकृत का बोलबाला रहा। इस समय देश-भेद से भी प्राकृत के भेद हो गए थे । बगाल, उत्कल, बिहार, उत्तर प्रदेश, पंजाब, गुजरात, राजस्थान, मध्यभारत, महाराष्ट्र श्रादि में ( एक हो प्राकृत के } भिन्न-भिन्न रूप प्रचलित थे और इन प्रदेशों के अवान्तर भागों में भी अपनी-अपनी प्राकृत के अवान्तर भेद भी जरूर होंगे ।

  • कोस-कोस पर पाली बंदले, सुबो कोस पर बानी' । परन्तु सा फोल पर भेद

ऐता प्रस्फुटित नहीं होता कि लक्षित हो जाए। सौ-पचास मील पर वह प्रस्फुटित हो जाता है ।। ' सो, इस प्रकार भारत के प्रदेशों में और छोटे-छोटे जनपदों में विभिन्न प्रकार की प्राकृत चल रही थी । भगवान् महावीर ने और भगवान् बुद्ध ने अपनी-अपनी बोली में-अपनी-अपनी प्राकृत भाषा में जनता को उपदेश दिए ! इससे प्राकृत को बहुत बल मिला । महाराज अशोक के समय प्राकृत राजभाषा हो गई। इससे उसकी शक्ति और भी अधिक बढ़ गई। बुद्ध ने अपनी {मागधी) प्राकृत में ही जनता को उपदेश दिए थे, जो आगे चल कर