लोग पहले नौकरों को मारते भी थे'। यहाँ ‘मार' मूल घातु है । ‘भर' का
प्रेरणा-रूप बनाना हो, तो 'दे' या ‘डाल' जैसी कोई धातु सहायक रूप से
अती है। ‘मा बच्चे को कभी मारती भी हैं' और 'नागिन अपने बच्चों को
भी मार डालती है' में बहुत अन्तर है। परन्तु भूतकाल में नेवले ने साँप
को मारा' आदि में मार डालना' ही अर्थ होता है। साँप और नेवले का
संबन्ध ही ऐसा है । उठ, बैंठ, जाग आदि मूल धातुओं के प्रेरग-रूप
उठा, बैठा, जगा जैसे दीर्घान्त हो जाते हैं, उसी तरह ‘मर का भी दीर्धान्त
रूद चाहिए था; पर नहीं है-'नेवले ने साँई के सारा, मार डालता है। यों
‘मार रहता है। अन्य धातु का अन्त्य र दीर्घ हो जाता है—उठता
है-उठाता है, सोता है-सुलाता है। परन्तु मरता है साँप और मारता
है नेवला । यानी अन्त्य के बदले प्रथम स्वर दीर्घ हो गया है, जब कि
अन्य घातुओं का दीर्घ प्रथम स्वर ह्रस्व हो जाता है—-पीता है-पिलाता है ।
यह ‘मर' का प्रेरणा-रूप ‘मार इस लिए कि उर्दू में एक अन्यार्थक सकर्मक
‘मर' धातु है, जो अश्लील प्रयोगों में प्रायः अशिष्ट और शोद्ददे लोग हिन्दी-
क्षेत्रों में भी बोलते हैं। उसी 'मरा के कारण ‘मार' प्रेरणा-रूप ‘मर” को ।
भूतकालिक रूप 'भारा' है---‘नेवले ने साँप' मारा।
प्रेरणा के रूप में हिन्दी व्याकरणकार बहुत गड़बड़ी में पड़ गए हैं।
उदाहरणार्थ, उन्हों ने लिखा है-सिलना बँधना' आदि मूल धातु हैं।
और ‘सिलाना' बाँधना' आदि इन के प्रेरणा-रूप यह गलत है। सोना
( सी ) तथा ‘बाँधना' ( ‘बाँध' ) आदि मूल धातु हैं---सिल’-बंध नहीं ।
‘कपड़े सिलते हैं 'गठ्ठर बँचते है आदि में पड़े और गट्ठर वास्तविक
‘कर्ता नहीं हैं कि सिलने-‘बँधने को भूल क्रिया माना जा सके। मून क्रिय
का कृर्ता अपने व्यापार में स्वतंत्र होता है--स्वतंत्रः कृता । परन्तु कपड़े
स्वयं सिल नहीं सकते और गट्टर अपने अाप बँध नहीं सकते। कोई सीने
बाला और बाँधने वाला चाहिए। वही कत कहलाए गए । कपड़े वो
भिलने की चीन हैं और राष्ट्र बैंघने की चीज । दोनो कर्म हैं । सर्नेवाला
और बाँधनेवाला कौन है; इस की उपेक्षा कर के--कृत की अविवक्षा में---
कह दिया जाता है-“कपड़े सिल रहे हैं। गट्ठर बँध रहे हैं। यानी तात्विक
- कर्म' का 'कर्ता' की तरह प्रयोग हुआ है। इसे 'गौण फ’ समझिए ।
यह अलग प्रक्रिया है-'कर्मकर्तृक', अहाँ फर्म का प्रयोग कर्ता की तरह होती है। जब ‘कर्ता उपेक्षित है, तो ‘कर्म का ही उस की तरह प्रयोग