पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/५०८

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यदि सोच कर देखें, तो ‘मा बच्चों को दूध पिलाती है' में बच्चों को गौण सम्प्रदान' तथा ‘मा नौकर से साग मॅगाती है' में नौकर 'गौण करा अधिक अच्छे नाम जान पड़ेंगे। परन्तु संस्कृत व्याकरणु की परम्परा में उन्हें गौण फर्म' ही नाम प्राप्त है। अन्य भारतीय भाषाओं की तरह हिन्दी भी संज्ञा-परिभाषा आदि संस्कृत से ही लेती हैं। नाम चाहे वो , वस्तु समझ लेनी चाहिए। । मूलतः अकर्मक चातु प्रेरणा में सुकर्मक हो जाती है—सकर्मकता उसी गौण कर्म के कारण । मूल कर्ता 'कर्म' के रूप में प्रयुक्त होता है १-मा बच्चे को जाती है--बच्चा जागता है। २–बच्चा मा को उठाता है—भा उठती है। ३-मा बच्चों को बैठाती है --बच्चा बैठता है। यों असली कत गौण कर्म के रूप में सर्वत्र है। प्रेरणा की बनावट मूल धातु प्रेरणात्मक उपधातु के रूप में आती है, तब उस में थोड़ा रूप भेद हो जाता है। संस्कृत में “पठति'-पतति' जैसी मून क्रियाओं के प्रेरणारूप-‘पाठयति'--'पातयति' जैसे हो जाते हैं। यानी धातु का प्रथम ह्रस्व स्वर दीर्घ हो जाता है। परन्तु हिन्दी में इस के विपरीत, मूल धातु का प्रथम स्वर यदि दीर्घ हो, तो ह्रस्व हो जाती है--- १.बच्चा जागता हैं-बाप बचे को जगता है। २–अन्न सुखता है---गृहिणी अन्न सुखाती है ३–छात्र कुछ सीखता हैं-अध्यापक छात्र को सिखाता है। दूसरे उदाहरण में कर्म (अन्न) निर्विभक्तिक है; किं विभक्ति की जरूरत ही नहीं । पहले कह आए हैं कि यदि विभकि-प्रयोग के बिना ही कारक-बोध हो र, तो फिर हिन्दी में विभक्ति का व्यं प्रयोग नहीं होता । वही बात प्रेरणा में भी है और आगे 'नामधातु' में भी । “भूस्वती' में *सूख' मूल धातु है। संस्कृत शुष्’ का विकास-सुख'। इसे सूख' से समझना गलती है। यानी ‘नामधातु' नहीं है। नामधातु में श्र' प्रत्यय