पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/५२

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देश भर की सम्पत्ति हो गए और वे ऐसी प्राकृत में लिखे गए, जिसे वास्तविक ‘मागधी' नहीं कह सकते । उस प्राकृत का नाम आगे चलकर ‘पाली पड़ गया। ‘पाली ऐसी प्राकृत है, जिसे न मागधी कह सकते हैं, न महाराष्ट्री और न शौरसेनी ही । बुद्धवचन देश भर झी सम्पच्चि बन गए, तब वे ‘मागधी जैसी किसी प्रादेशिक भाषा में ही कैसे बँधे रहते ? ऐसा जान पड़ता है कि प्रदेश-भेद से विभिन्न प्राकृत भाषाएँ होने पर भी कोई एक पुराना साहित्यिक रूप ( प्राकृत का ऐसा भी था, जिसे देश भर में स्थान प्राप्त था--देश के सभी भागों में जो समझी जाती थी । उसी राष्ट्रीय प्राकृद में 'त्रिपिटक' आदि लिखे गए और अब चलकर वह अन्तर-राष्ट्रीय चीज बन गई–तिब्बत, चीन, लंका, स्यास, बरमा, काबुल, अादि न जाने कहाँ-कहाँ बुद्ध-वचन

  • पाली’ को ले गए।

| बुद्ध-उपदेश तो एली' में चले; परन्तु अन्य साहित्य विभिन्न प्राकृत में भी बनतः-चलता रहा । जिन प्राकृत में,साहित्य-रचना होती थी, उनके नाम हैं---भागधी, अर्द्धमागधी, महाराष्ट्री, शौरसेनी आदि । परन्तु जिन प्राकृतों में वैसा साहित्य नहीं बना, उनके नामों का निर्देश प्राकृत-व्याख्याता ने नहीं किया है । बंगाल, उत्कल, पंजाब तथा उत्तर प्रदेश के पश्चिमोत्तर भुग में जो हात-रूप चल रहे थे, उनके नाम का झोई उल्लेख नहीं है। जिसके पास कोई सम्पत्ति नहीं, उसका नाम कौन ले ! ऐसा तो ही नहीं सकता कि इन प्रदेशों में उस सुसुम साहित्यिक चेतन का अभाइ रहा हो ! असम्भव बात है। ऐसा जान पड़ता है कि इन प्रदेशों में मनीखी या तो ‘पीली' में कुक्क लिखते होंगे, या फिर संस्कृत में । अपनी प्राकृत साधारण व्यवहार के लिए' । श्राद्धकल भी देखिए, उत्तर प्रदेश के दुवाल, अचवा तथा बैसवाड़े आदि में अलग-अलग बोलियाँ हैं। परन्तु इन बॉलियों में कोई साहित्य रचना नहीं करता, सन्न राष्ट्रभाषा ( हिन्दी ) में ही लिखते-पढ़ते हैं। आपसी बोल-चाल में अपनी भाषा चलती है । राजर्षि टंडन जी झापसी बात-चीत

  • अवधी' में ही करते हैं, स्वर्गीय अवार्य द्विवेदी 'बैसवाड़ी ही बोलते थे,

अपने गाँव-वर में | राजस्थान, मध्यप्रदेश, विन्ध्य • प्रदेश, मध्य - भारत, हिमाञ्चले आदि प्रदेशों में अपनी-अपनी भाषाएँ हैं, परन्तु इन प्रदेश के विद्वान् साहित्य-रचना हिन्दी में करते हैं। तभी तो यह राष्ट्रभाषा बनी ? साहित्यिक भाषाओं के नाम गिनाते समय बँगला-गुजराती अादि के नाम लिए जाएँगे, गढ़वाली, बैसवाड़ी, मगही, छत्तीसगढ़ी और मालवी आदि