पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/५११

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
(४६६)

सो, यदि कोई मूल धातु वैसा अर्थ देने वाली है, तो फिर प्रेरणा-रूप किसी धातु के क्यों बनें-चलें ? | सार्थक ‘होना' के या 'है' के भी प्रेरणा-रूप नहीं होते । सत्ता की प्रेरणा क्या ? जो है, सो है; जो नहीं है, उस का होना सम्भव नहीं ! ‘नाऽसतो बिद्यते भावः'जो नहीं है, उस का होना सम्भव नहीं । प्रयोग जरूरी हो, तो बनाना' आदि भूल धातुओं से काम चल जाता है। संस्कृत में भी असू की प्रेरश नहीं होती । तू धन खोता है, आँबाता हैं। इस तरह की ‘खो' जैसी धातुओं के भी प्रेरा-रूप नहीं होते; क्योंकि किसी चीज का खोना उस की मानसिक स्थिति से संबन्ध रखता है। कोई चील श्राप ने खो दी और सदा खो देते हैं । परन्तु मैं आप से ‘खोवा' या खु’ कैसे कह सकता हूँ ? किसी दूसरे से उस की चीच ‘खोवाना' या खुना' या ‘खुलाना सम्भव नहीं। तब ऐसे शब्द प्रयोग कैसे हो ? इसी तरह ‘पा' धातु की भी प्रेरणा नहीं होती; क्योंकि कोई कुछ पाता है—दूसरा उसे देता है। आप उसे कुछ दिला सकते हैं। परन्तु जब वह वीज पा रहा है, तो आप का ‘पवाना कैसा ? व्यर्थ की चीज ! इसी लिए “पा' जैसी धातुओं के प्ररणा-रूप नहीं होते हैं। सकना' धातु की भी प्रेरणा नहीं होती । जो जिस काम को कर सकता है, कर ही सकता है। किसी में ‘सुकना' आप पैदा नहीं कर सकते ! चो व्यक्ति कुछ नहीं कर सकृता, उस से श्राप कुछ कैसे कर सकें गे ? संस्कृत में भी शक्नोति' ( शुरू ) की प्रेरणा नहीं होती। यदि शक्तता प्रेरक कक्ष में है, तो ऐसे प्रयोग हौं --'अहमेतत् क्वारयितुं शक्नोमि'--मैं यह करा सकता हूँ । यो ‘कर' ( ‘कृ’ ) की प्रेरणा हुई, “सुक’ ( था ‘शक ) की नहीं । मुझ में शक्ति है कि उस से यह काम करा लें। वह कर सकता है, भेरी प्रेरणा पर । इसी तरह ‘रुचना' श्रादि की प्रेरणा नहीं होती । जो चीज आप को अच्छी नहीं लगती, उसे कोई कैसे अच्छी लगा दे गा ? किसी के दबाव से आप कह भले ही दें कि हाँ अच्छी लग रही है तुम्हारी बुनाई दाल !' परन्तु वस्तुतः वह अच्छी लगने लगी क्या है कोई चीज स्वयं रुचती है;

  • चाई नहीं जा सकती ।