पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/५१२

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( ४६७ ) ऊपर कहा गया है कि जाना- ना' जैसी क्रियाओं के प्रेरणा-रूप नहीं होते; क्यों कि भाषा में भेजना'-'बुलाना' जैसी क्रियाएँ विद्यमान हैं। परन्तु चलना’ और ‘पहुँचना' क्रियाएँ एक विशेष प्रकार की हैं और कभी- भी इन के प्रेरणा–रूप भी सामने आते हैं । इस का कुछ विवेचन जरूरी है। ‘चल' हिन्दी में अपने ढंग की एक ही धातु है। संस्कृत में भी चलू’ है और वह भी गत्यर्थ है ---*चलन्ति सर्वे’ चलन्ति गिरयः---सब चलते हैं । पहाड़ भी चलायमान हैं । “गच्छति' का अर्थ है ...जाता है । बलु’ कुछ विशेष प्रकार की गति बताती हैं । कभी-कभी गच्छति' के अर्थ में भी ‘चलति' का प्रयोग होता है। परन्तु हिन्दी की 'चल' में एक छौंर ही विशेषता है। संस्कृत की 'चलू’ यहाँ इल' ( अकारान्त ) हो गई है-- शब्द-विकास इतना भर है । परन्तु अर्थ-विकास बहुत ज्यादा हुआ है। गच्छामः-जाते हैं और चलामः' भी जाते हैं। परन्तु हिन्दी में हम चलते है' कहने से मतलब यह कि तुम { भी ) पीछे आ जाना। इस जाते हैं। कहने से वह बात नहीं निकल सकती । *फल चलें में और ऊल जाएँ गे' में बहुत अन्तर हैं। दूसरी क्रिया का कर्ता उत्तम पुरुष मात्र (हम) है; जब किं पहली का कृत उत्तम पुरुष के साथ, अप्रत्यक्ष् रूप में, मध्यम पुरुष भी है। कुल चलें गे' कहने का मतलब यह कि “हम तुम दोनों चले गे' । “हम जाएँ गे' में वह बात नहीं हैं। इसी लिए जाना से चलन किंचित् भिन्नार्थक है और इसी लिए इस की प्रेरणा होती हैं. आज वो तुम ने हमें इतना चलाया कि नस-नस शैली हो गई } *चलाया’---जब- दस्ती चुलाया ! चलने को विवश कर दिया । मैं छतः इला; पर तुम्हारे कारण । “तुम ने चलाया' । मा बच्चे को पैदल भी चलाती है। थान मा भी साथ चल रही हैं। चलने में भी साथ न हो, तो भी कमी-भी-‘दू ने आज मुझे बहुत पैदल चलाथा' जैसे प्रयोर हो जाते हैं । | इसी तरह ‘पहुँचना’ क्रिया है। कमला घर गई और कमला घर आई। श्राप काशी में बैठे कोई निबन्ध लिख रहे हैं, तो लिख सकते हैं- जन औरंगजेब काशी आया और विश्वनाथ का मन्दिर तुड़वाया, वो समस्त देश में क्षोभ व्याप्त हो गया । परन्तु क्वाशी से बाहर दूर कहीं बैठ कर लिख रहे हैं, तो काशी श्राथा' की जगह काशी पहुँचा लिस्वना हो गर । यदि काशी से श्राप की कोई आत्मीयता नहीं है, तो 'क्वार्थ राया' भी लिख सूझते