पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/५१५

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( ४७७ ) कार की ओर देखती है। इन्हीं में से किसी के पीछे हो लेती है । सफर्म क्रियाओं के जब अकर्तृक प्रयोग होते हैं, तब कर्म का प्रयोग कर्ता की तरह होता है; तो भी वह है वो ‘कर्म' ही ! इसी लिए हमें इसे ‘अकर्तृक प्रयोग कहते हैं । प्रेरणः में असली कत कर्म के रूप में आ जाता है, तो भी वह है। कर्ता ही । इसी लिए वैसी क्रियाओं को हम ने द्विकर्तृक' कही है। यहाँ

  • कर्म का प्रयोग कर्ता की तरह होने पर भी वह ( कर्म ) वास्तविक कर्ता

नक बन जाता । कर्म ही है। इसी लिए इन क्रियाओं को हम अकर्तृक कहते हैं । ऐसी क्रियाओं को कर्मकर्तृक' भी कहते हैं, क्योंकि ‘फर्स' ही कर्ता के रूप में आ जाता है। परन्तु कर्म ही नहीं, करण आदि अन्य कारकों का भी कत की तरह प्रयोग होता है; इस लिए 'कर्मकर्तृक' का मतलब ‘कर्मादि- कर्तृक' समझना चाहिए। किसी ने कहा- श्राज तो खूब कपड़े सिल रहे हैं। तो, कर्ता का प्रयोग नहीं हुआ। कपड़े कौन सी रहा है--सीने वाला ( ‘कृ’ ) फौन है; नहीं बतलाया गया। कर्ता की विवक्षा नहीं। ऐसे प्रयोग भाषा में होते हैं। परन्तु सीने की काम अपने आप तो हो नहीं सकतइ ! स्वतंत्रः कर्ता। क्या कपड़े स्वयं सिल सकते हैं ? असम्भव है । कोई सीनेवाला चाहिए। वहीं कृर्ती । कपड़े तो कर्म हैं- सिए जाते हैं । सो

  • कपड़े सिल रहे हैं' अकर्तृक प्रयोग; या कर्म-कर्तृक' प्रयोग । कर्म' कर्ता की

तरह दिखाई देता है-झपड़ा सिल रहा है, टोपी सिल रही है और कपड़े चिल रहे हैं। नकली छत के अनुसार क्रिया के लिङ्ग-वचन आदि हैं। ‘कर्मवाच्य क्रिया में भी क्रिया के लिङ्ग-वचन आदि कर्म के अनुसार होते हैं-सीता ने प्रन्थ पढ़ा और राम ने विद्या पढ़ी' । परन्तु कपड़े सिल रहे हैं कर्मवाच्य नहीं, कर्भकतृ'क' प्रयोग है। कर्म का कर्ता की तरह प्रयोग है-- असली कृर्ती दिखाई ही नहीं देता। 'कर्मवाच्य क्रिया में कत विद्यमान रहता है; परन्तु क्रिया की गति ऋर्म के अनुसार होती है । 'करणवाच्य’ कोई क्रिया नहीं हो सकती; परन्तु अझतृक क्रियाएँ ‘करणकतृक होती हैं। क ी अविवक्षा में--‘करण' की विशेषता प्रकट करने के लिए 'करण' का } कर्ता की तरह प्रयोग होता है- १.---तलवार शत्रुओं के सिर काट रही है। ३–बाण ने रावण को छेद दिया ३–मेरी कलम ने बहुत काम किया है।