पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/५१६

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( ४७१ ) यहाँ तलवार, बाण तथा कलम कर्ता की तरह आए हैं। परन्तु हैं फिर भी ये करण ही । तलवार अपने आप ( स्वतंत्र रूप से ) किसी का सिर नहीं काट सकती; बाण स्वयं किसी को छेद नहीं सकता और कलम' खुद कुछ भी कर नहीं सकती; जब तक इन से काम लेने वाला कोई न हो। परन्तु इन साधनों में विशेषता बतलाने के लिए, या अन्य कारणों से, जब कती का प्रत्यक्ष उपादान वाक्य में नहीं होता, तो इन साधनों को ( करण कारक को ) फत की तरह प्रयुक्त करते हैं । ये ही क्रियाएँ ‘करण-कर्तृक' हैं। यदि वाक्य में कर्ता उपास हो, तब कभी भी क्रिया करण कारक का अनुग- मन न करे गी । “राम ने राक्षस मारा' ‘देवी ने राक्षस भारा' । क्रिया ( कर्ता की उपस्थिति में भी ) कर्म के अनुसार हैं-कर्मवाच्य क्रिया है । परन्तु देवी ने तलवार से राक्षस मारा' को कभी भी ‘तलवार' के अनुसार भारी नहीं कर सकते; पर फर्म के अनुसार–शिकारी ने बाण से चिड़िया मारी’ हो गर । सो, क्रियाओं का यह ‘अकतृ'क' प्रयोग कर्मवाच्य' तथा 'भाववाच्य से भिन्न विषय हैं । 'करण' तो वस्तुतः हाथ-पार्वं श्रादि हैं । 'तलवार' आदि ‘उपकरण हैं। पर इन उपकरणों को भी ‘क’ नाम मिल गया है। उपकरण का प्रयोग होने पर असली कुरण ( हाथ-पार्वे आदि) का प्रयोग नहीं होता, अनावश्यक समझ कर । ‘हैतु' का फर्वा की तरह प्रयोग नहीं होता । “बर्षा से अन्न होता है। गरमी से फल पकते हैं आदि में वृष गरमी” हेतु हैं । प्रेरणा-प्रयोग हो सकता है-गरमी फलों को पकाती है । अकतृक प्रयोग में भी उपधातु' लगती है; अर्थात् मूल धातु में कुछ विशेषता पैदा हो जाती है। धातु के श्री अंश में प्रायः वही कुछ परिवर्तन होता है, जो कि 'द्विकर्तृक क्रिया ( ‘प्रेरण?) में । परन्तु अन्त्य अंश में भिन्नता रहती है। प्रेरणा में अन्त्य स्वर दीर्घ हो जाता है, यानी अन्त में

  • श्रा' लग जाता है; जब कि अकर्तृक क्रिया का अन्त्य तदवस्थ रहता हैं-

स्वर–दीर्घतो यानी 'आ' प्रत्यय का अभाव रहता है। इसी लिए हम इसे मूल धातू' का संकुचित रूप कहते हैं। दूसरी तरह से भी उभयत्र विकास- संकोच है। 'प्ररया' में एक की जगह दो या तीन कर्ता हो जाते हैं--एक असली और अन्य प्ररक या प्रयोजक । परन्तु यहाँ असली कर्ता भी दिखाई नहीं देता !