पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/५२८

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( ४८३ ) | जब कोल-निरपेक्ष कर्तृवाच्य ‘त' प्रत्यय ‘ले. दे' धातुओं से होता है, तो सदा अपने ही रूप में रहता है। वचन-भेद या पुंस्त्री-भेद तो कर सहायक क्रिया की तरह होता ही है। इन धातुओं से यह ‘त' प्रत्यय कृत की उपेक्षा-वृत्ति, बेबसी, या बेगर की सी बात सूचित करता है १-वेद भी कभी पढ़ लेता हूँ २—जिद करने पर कुछ दे भी देता हूँ। ३-कभी-कभी उस की चिट्ठी पढ़ देता हूँ ४- काशी में कभी सुन्थ्यो भी कर लेती था | ५-~~-कभी गरीबों को भी कुछ दे देता था लेता था' और 'देता था’ को ‘लिया था'-*दिया था' न हो गा; क्यों कि 'त' प्रत्यय काल-निरपेक्ष है । 'थ' से भूतकाल प्रकट है। पढ़ लेता था- कभी-कभी । पढ़ने का जारी रहना प्रफुट है। वेद पढ़ लिया था' यानी पढ़ना हो चुका था। | परन्तु अब ‘क’ सहायक क्रिया के साथ ले-दे' क्रियाएँ भी सहायक रूप में हों, तो इन से 'य' प्रत्यय 'भावे' होता है और ‘कर में वही कर्तृवाच्य ( कालनिरपेक्ष ) “त' प्रत्यय- १-मैं चारो वेद पढ़ लिया करता हूँ । २--सीता भी चिट्ठी पढ़ लिया करती है। ३—तुम अपने पत्र पढ़ लिया करते हो ४-मोइन उस की चिझे पढ़ दिया करता है। ५. लड़कियाँ बुढिया की रोटी बना दिया करती हैं। मुख्य क्रिया अपने मूल (धातु') रूप में सदा रहेगी। भूतकाल में भी---- १-हम चिट्ठी पढ़ लिया करते थे। २ सीता पेट बना लिया करती थी रोटी सीता भी खाती थी, इस लिए बना लिया करती थीं ।' स्वयं न खाती, तो बना दिया करती थी’ होता । स्वयं न खाने पर भौं, आत्मीयता प्रकट करने के लिए-मैं अभी रोटी बनाए लेती हूँ” हो गा; बनाए देती हूँ में वह बात न रहे गी । बेगार-सी हो गी !