पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/५२९

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( ४८४ ) चिट्ठी पढ़ देता था कहने से क्रिया का उस समय जारी रहना प्रकट होता है। यदि ऐसा न हो, भूतकाल में कोई चिट्ठी पढ़ दी हो, तो कहा जाए या-- १-हम ने वह चिट्ठी पढ़ दी थी २–तुमने रोटी खा ली थी। | पढ़ दी थी’ और ‘पढ़ी थी' में भी अन्तर है। पढ़ दी थी’ ले ली थी' आदि में '३'-ले' धातुओं से भूतकालिक 'य' प्रत्यय ‘कर्मणि’ स्पष्ट है । अकर्मक से भावे, “हम ने तो पढ़ लिया' । सकर्मक का अकर्मक प्रयोग है। मुख्य क्रिया कूटस्थ है ही। | ‘चुकना' सहायक क्रिया यदि किसी क्रिया की पूर्ण अभिनिवृत्ति सूचित करनी हो, तो चुकना सहायक क्रिया के रूप में लगती है। इस क्रिया का 'सझ' की तरह ही राष्ट्रभाषा में स्वतंत्र प्रयोग नहीं होता; सर्वत्र सहायक रूप में ही काम करती है। सम्भव है, कभी स्वतंत्र प्रयोग होता हो; या अब भी कहीं हो रहा हो । सक' का स्वतंत्र प्रयोग हिन्दी-साहित्य में, या हिन्दी-प्रदेशों में नहीं होता; जैसे संस्कृत में ‘शक्’ ( शक्नोति'-'शक्यते ) का । परन्तु कलकचे के मार- वाड़ी व्यापारियों को बोलते आप चाहे जब सुन सकते हैं--सकते हो, त बेच दो'। यानी ‘बेच सकते हो, तो बेच दो।' सम्भव है, द्विरुक्ति हटाने के लिए ही वहाँ सकते हो' बोलने लगे हों। संस्कृत में भी कृदन्त रूप से

  • शक्’ का स्वतंत्र प्रयोग देखा जाता है--शक्यं चेत्, सम्पादनीयम् । कल-

कतिया हिन्दी में संस्कृत का अनुवाद हो गा--‘सकते हो, तो कर लो' । अन्तर यह कि ‘शक्यम् कृदन्त भाववाच्य है और सकते हो” कृदन्त-तिङन्त कर्तृवाच्य।। चुकना मुख्य क्रिया के रूप में ( ‘जा' सहायक क्रिया के साथ ) छानपुर आदि में प्रचलित है चबैना चुकि गा-चबेना समाप्त हो गया । यहाँ केवल इतना समझिए कि लुफना' को स्वतंत्र प्रयोग राष्ट्रभाषा में नहीं होता । सहायक क्रिया के रूप में इस का कर्तृवाच्य प्रयोग होता है, तो मुख्य क्रिया कूटस्थ रहती है- १---जब मैं रोटी खा चुकता हूँ, तब तू आता है। २.--जब सीता रोटी खा चुकती है, तब तु साग लाता है। ३-- जब लड़के रोटी खा चुके, तब हम अाए