पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/५३७

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जब निषेधात्मक न रह कर विध्यात्मक रहती है, तब भूतकाल में कर्मणि भी प्रयोग होता है। राम ने पुस्तक पढ़ पाई, तो बड़ा काम हो जाएगा ( कर्मणि ) राम पुस्तक पढ़ पाया, तो सम्मति अवश्य भेजे गा । ( कर्तरि ) पीछे संयुक्त क्रिया के उदाहरण से यह स्पष्ट है कि मुख्य क्रिया कहीं तो अपने मूल (धातु' ) रूप से है और कहीं भाववाचक कृदन्त रूप से । भाववाचक कृदन्त भी केवल धात्वर्थ ही है, और कुछ नहीं । “पढ़ पाऊँ गा’ में पढ़’ धातु-रूप हैं और पढ्ने पाऊँ गा' में पढ़ने ( पढ़ना' ) भाववा- चक कृदन्त । परे ‘पा? होने से श्रा' को “ए हो गया है, जो बदलता नहीं है। हिन्दी में संस्कृत क्रियाओं को ले कर भी साधारण संयुक्त क्रियाएँ बनती- चलती हैं और आधुनिक साहित्य में तो ऐसी क्रियाओं की ही बाहुल्य है।

  • स्वीकार भाववाचक संज्ञा या क्रिया का सामान्य रूप संस्कृत में है । इसे मुख्य

क्रिया मान कर आगे ‘कर सहायक क्रिया लगती है---मैं स्वीकार करता हूँ। यहाँ केवल ‘करता हूँ क्रिया हो और स्वीकार कर्म हो, ऐसी बात नहीं है । यदि ऐसा होता, तो मैंने आप की बात स्वीकार की न होकर आप की बात स्वीकार किया' रूप होता; या फिर आप की बात को स्वीकार किया प्रयोग होता । कर्मवाच्य में फर्म के अनुसार ही क्रिया होती है। परन्तु यहाँ प्रयोग सदा 'आप की बात स्वीकार की होता है । इस लिए ‘स्वीकार करना क्रिया है। मैं ने अप की बात को स्वीकार किया' में भी स्वीकार कर्म नहीं है। यह भाववाच्य प्रयोग है। यहाँ इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि स्वीकार करता हूँ की जगह

  • स्वीकरण करता हूँ नहीं हो सकता; यद्यपि “स्वीकरण' भी भाववाचक है।

कर्मवाच्यता में स्वीकृत जरूर चलता है । ‘अनुसरण करता है’ को ‘अनु । सार करता है? न होगा । | कहीं फर्म में सम्बन्ध-विवक्षा होने पर ग्राम वेदों का अध्ययन करता है? जैसे प्रयोग होते हैं । वेदकर्मक अध्ययन राम का होता है। उर्दू-शैली से किलीं विदेशी शब्द् से भी संयुक्त क्रिया बन जाती है—मैं आप की अर्जी मंजूर करता हूँ। ‘मंजूर करना’ क्रिया है; केवल ‘करना नहीं। इसी तरह मना करना श्रादि समझिए । परन्तु मैं ने उसे श्रीज्ञा दी है' आदि में केवल ‘देना' क्रिया है--‘आज्ञा देना नहीं । 'अज्ञा’ कर्म है ।