पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/५४

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विकास हुआ ! इस्रे भ्रम से आगे चलकर यह भी लिख दिया गया कि ब्रजभा से बड़ी बोली' निकली है ।' यह सब प्रसाद है । शौरसेन तथा कुजनपद पड़ोस हैं और दोनों की प्राक्कतें एक दूसरे ले प्रभावित हैं, यह सही है; परन्तु इनमें से कोई किसी से निकली नहीं है । ये दोनों किली एक प्राकृत से निकली हैं, यह ठीक है । बड्नै दोनो हैं, माँ- बेटियाँ नहीं । दोनों के रूप-रंग तथा अंग-विन्यास में बहुत बड़ा अन्तर हैं, जो आगे हम यष्ट करेंगे । । शौरसेनी का हारम्न ज से होता है । इन ‘शौरसेन’ (शूरसेन का प्रदेश) प्रसिद्ध हैं। इइ की भाषा :ौरलेनी' ! आज की त्रज्ञाषा' शौरसेनी का ही रूपान्तर है, जिस पर कौरव' का प्रभाव पड़ा है ! राजस्थानी का प्रभाव ब्रज सापः पर क्युः कहें, ये दोनों को शौरसेनी से हैं ही । । तो, बुद्ध के आगे-पीछे इस देश में ॐ हुक्कतें चल रही थीं, द्वितीय अवस्था की हैं। श्री चल कर इनके रूओं का भी विकास, हुआ और होते-होते इतना रूपान्तर हो गया कि इस तीसरी अवस्था में ऋr कर रूप एकदम बदल २। इन तश्तरी प्राकृत ऊ, या प्राकृत की तीसरी अवस्था के रूप को, लो अपभ्रंश कहते हैं, जो ठीक नहीं । तीसरी प्रकृत' कहना ठीक है । कली खिल कर फूल बन जाए, तो कहा जाए---काल खिल गई, कली फूल बन गई । यह न कहा जाय कि कली बिगड़ गई—-या कली का छिड़ा हुआ रूप फूल हैं । देश झुर में जो तीसरी प्राकृत के विविध रूर चल रहे थे, उनका झागे विकास हुअा और ये पूर्ण विकसित रूप ही झाज की इमारी प्रान्तीय युः प्रादेशिक भाषाएँ हैं--बैसवाड़ी, अवधी, ब्रजभाषा, राजस्थानी, बँगला, मराठी, उड़िया, गुजराती श्रादि । बहुत से देशों में बहुत पहले से हिन्दी को ही अपनी साहित्यिक मापा के रूप में ग्रहण किया और अपनी मातृभामा साधारण व्यबहार में रखी । उत्तर प्रदेश के गढ़वाल, कुमायूँ, ब्रज, बैसवाड़ा और अवध अपनी अपनी पृथकू मातृभाषा रखते हैं । राजस्थान, मध्य भारत, मध्य प्रदेश, विन्ध्य प्रदेश तथा बिहार श्रादि की भी अपनी-अपनी भाषा हैं ! परन्तु इन सब नपदों ने त प्रदेशों ने साहित्यिक भाषा के रूप में हिन्दी को ही ग्रहण किया । बँगला, उड़िया, गुजराती, मराठी, आदि साहि-