पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/५५

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त्यिक भाषाएँ भी हैं। इन प्रदेशों में भी अब हिन्दी राष्ट्रभाषा के रूप में गृहीत हो चुकी है।

             प्राकृत और हिन्दी

ऊपर इभने दूसरी प्राकृत से तीसरी का और तीसरी से आज की भाषाओं का विकास बतला है, यानी तीसरी प्राकृत या अपभ्रंश' ही आगे विकसित व्यवस्थित रूप में स्वाज की भारतीय आर्य-भाषाएँ । हिन्दी आदि ) हैं। 'तीसरी' शब्द वस्तुतः ‘तीसरी अवस्था के लिए है; क्योंकि मूल भाषा' को हम तत्त्वतः प्राकृत मानते हुए भी नाम 'प्राकृत' नहीं देना चाहते; क्योंकि

  • संस्कुल' नाम आए बिना ‘प्राकृत' नाम भाषा का अँचता नहीं । इस सम्बन्ध

में यह ध्यान रखने की बात है कि दूसरी अवस्था की प्राकृतें बहुत कुछ कृत्रिम रूप में हमारे सामने उपस्थित हैं। पाली के अतिरिक्त उस समय की अन्य प्राकृत के रूप बहुत कुछ कृत्रिम जान पड़ते हैं, उस समय की जनभाषाओं से बहुत दूर ! साहित्यिक लोग कभी-कभी अपनी विद्वत्ता प्रकट करने के लिए भाषा को कुछ का कुछ बना देते हैं ! उस समय के जो प्राकृत रूप हमें साहित्य के द्वारा प्राप्त हैं, उन्हें देखने से जान पड़ता है कि साहित्यिक लो उस समय संस्कृत के प्रभाव में ऐसे पड़े थे कि प्राकृत को उसी ( संस्कृत ) की पटरी पर चलाना चाहते थे और संस्कृत से प्रतिद्वन्द्विता भी प्रकट करते थे ! । उस अनुचित प्रभाव के कारण प्राकृत अपना रास्ता छोड़ कर भटक गई, अपनी चाल छोड़ कर कुछ अटपटी हो गई और प्रतिद्वन्द्रिता के कारण बिकृत हो गई, प्राकृत अप्राकृत हो गई ! वर्ण-विकार और अन्धाधुन्ध व्यंजन-लोप है उसे कर्णकटु बना दिया है । उस समय के लोगों को, साहित्यिकों को, वह मीठी लगती होगी; हम लोगों को तो बड़ी अटपटी तथा श्रवणकुटु लगती हैं ! निश्चय ही तीसरी प्राकृत ( अपभ्रंश ) में वह कृत्रिमता बहुत कुछ बन्दी रही । परन्तु वर्तमान लोकभाषाओं से वह एकदम उड़ गई। ऐसा जान पड़ता है कि दूसरी अवस्था की प्राकृतों में साहित्यिक लोग कृत्रिम प्रयोग करते रहे; परन्तु जनता उसे अपने सहज सुलभ रूप में ही बोलती रही । वही सहज रूप तीसरी अवस्था की जनभाषाओं में आया और वही अधिक विक- दित होकर अाज हमारी भाषा के रूप में उपलब्ध है। साहित्यिक प्राकृत का प्रभाव साहित्य में चलता रहा, तीसरी अवस्था की प्राकृतों ( अप- अंशों ) में भी वह दिखाई देता है। अपभ्रंश---साहित्य की बात कही जा