पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/५४३

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प्रत्यय न हो, वह ‘मूल धातु' । 'पीनक' से 'पिनकना' नामधातु बताना ऐसा ही है, जैसे कि पतन' संज्ञा से पतति' आदि के पत्' को नामधातु जैताना ! हॉ, नामधातु का प्रत्यय ‘अ’ यदि सामने दिखाई दे, तो कुछ कहने की बाल जरूर हो गई । “सुखावत हैं महुआ' आदि में ‘सुखा' जरूर नामधातु, कह सकते हैं । सरकना’ की ‘सूरक' मूल धातु है और “सरसरातो है' की धातु “सरसरा' नामधातु है। ‘सर सर करना--सरसराना । नामधातु का आ' प्रत्यय हिन्दी की नामधातुओं में ‘अ' प्रत्यय लगता है। ‘मण्डल' एक संज्ञा है---गोल परिधि । • जब ऊपर चील मण्डल सा बना कर घूमती है--चहीं चक्कर काटती है, तो कहते हैं-चील मँडराती है, चील मँडरा रही है। यह 'मँडराना' क्रिया में इरा' नामधातु से बनी और मँडरा' नामधातु बनी

  • मण्डल' से । “मण्डल से *' प्रत्यय “ल” को र' और प्रथम स्वर हुस्ब

“मॅडरा' । अब इस 'मॅडरा' अकर्मक नामधातु से सभी कालों में और सभी अर्थों में तिङन्त-कृदन्त प्रत्यय हो कर प्रख्यात के वे सभी रूप वनें गे ।। यह श्रा' प्रत्यय नामधातु के लिए हिन्दी ने संस्कृत-नामधातुओं से ही लिया है, जो कि-- | ‘चन्द्रायते शुक्लरुवाऽपि हंसः, हंसायवे चारुगतेन कान्ता' जैसी जगह दिखाई देता है। ‘चन्द्र' संज्ञा से चन्द्रायते' क्रिया और 'हंस' से 'हंसायते' । इन क्रिया की नामधातुएँ सादृश्य-विधान में हैं। विविध अर्थों में नाम- धातुओं की निष्पत्ति होती है। सो, ‘चन्द्रायत्ते’ ‘हंसायते' आदि से हिन्दी ने 'आ' प्रत्यय निकाल कर सर्वत्र अपना काम चलाया है। संस्कृत में वारि से 'चारीयते' की तरह ‘बारायते नहीं । परन्तु हिन्दी में यह बात नहीं, सर्वत्र 'अ' प्रत्यय मिले गा–‘सिसियाते रहे सब ठंढ के मारे' । सिसियाते रहे--सी सी करते रहे ! सी सी' करना - ‘सिसियाना'। ऐसे अनुकरणा- त्मक शब्दो की द्विरुक्त नामघातु बनाने में होती है और यह प्रवृत्ति भी संस्कृत से ही आई हैं। ‘वृत्ति' ( कृदन्त, तद्धित, समास, नामधातु आदि) में शब्द को अद्य स्वर प्रायः ह्रस्व होली ( हिन्दी में ) देखा जाता है। ससी' + अ = ‘सिसि श्रा' । अन्त्य 'इ' को “इय्-‘सिसिया' नामधातु । जनबोलियों में भी प्रक्रिया यही है । 'मे मे करना---‘मिमियाना' । 'बोफ- . रिया श्राजु बहुत मिमियाति हैं-~-बकरी आज ‘से में बहुत कर रही है ।