पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/५४४

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*’ को ‘इ' ह्रस्व, 'अ' प्रत्यय और अन्त्य इ’ को ‘इयू स्पष्ट है। श्रागे

आख्यात-प्रत्यय अपने । 'ति’ ‘ती’ का ही ह्रस्व रूप है । मिमियाती हैं--- *मिमियाति है। | इसी तरह ‘लाज' से ‘लजामा क्रिया नामधातु की । लाज करवा हैलजाता है । लजाना' अकर्मक क्रिया । 'लज्जा' को 'लाज' तद्भव स्त्रीलिङ्ग और उस से 'श्री' प्रत्यय । आद्य स्वर ह्रस्व हो गया। ‘लजा' नाभधातु से आगे सब रूप । इसी तरह ‘शर्म' का “शरम' र के ‘शरमाना' आदि । *सन सुन करना----‘सनसनीना' ‘गौली सनसनाती चली गई। कोई कह सकता है कि 'लजाना' क्रिया की धातु ‘लञ्जा’ को असली धातु क्यों न मान लें ? उस से फिर 'लाज' संज्ञा क्यों न बने । | इस पर विचार करना है। हिन्दी में पढ़ कर चल' आदि धातुएँ अकारान्त हैं। कुछ ( जा, खो, गा, ला आदि ) अक्कारान्त भी हैं। अन्य स्वर भी धातुओं के अन्त में हैं, परन्तु यहाँ हमें अबणं से ही मतलब हैं । अकारान्तु तथा आकारान्त धातुओं का श्रेणी-भेद मनमाना नहीं हैं। 'अ' । छोड़, दीर्घ ‘अ’ कहीं यों ही मनमाना नहीं लगा दिया गया है। जहाँ वैसा है, वहीं है । संस्कृत था' का हिन्दी में जा' होना ही था | वाद् का *खा' अकारान्त हैं ही ! *थति' से 'गा' लिया गया है। आयाति' को श्राद्य अंश 'आ' है और ‘ला' में भी ‘अ’ है। इस तरह अकारान्तु धातु की स्थिति है । पढ़, कर, चढ़ आदि में वैसी कोई बात नहीं । इसी लिए ये सब अकारान्त हैं। बदि ‘लबाना' हिन्दी की मूल धातु होती, तो दीधान्त न होती----‘लक्ष के रूप में होती और 'लजता है जैसे रूप हो । “तज्' संस्कृत से ‘लब' ही हिन्दी-रूप मेल खाता है । दीर्घान्ल होने का कोई कारण नहीं । नामधातु में तो ‘ा' प्रत्यय लगता ही है। इसी लिए 'सूरवना' क्रिया की मूल धातु ‘सूख' है; सूखा' संज्ञा से बनी नामधातु नहीं । नामधातु होती, तो धूर पड़ती है, तब घास सूखती है की जगह ‘सुखाती हैं होता । हि धूप में चावल सुखाती हैं' में ‘सुलाती हैं। प्रेरणा-रूप है, सुस्वने छ । प्रेरणु में भी “अ' प्रत्यय होता है, जो अलग चीज़ है। यहाँ यह भी कह सकते हैं कि ‘सूत्रता है' को मूल क्रिया न मान कर सुखाने का अकर्तृक ( कर्मक ) रूप क्यों न मानें ? उत्तर है कि ‘घास सुखती है' में घास फर्ता है, असली