पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/५४७

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छुछुवाती फिरती है। ‘छुछुआती' भी होता है। छबूंदर' गन्दगी पसन्द करती है और छू छू' करती हुई रात में घूमती रहती है । इस के इसी ‘छू छू शब्द से नामधातु छुछुवाना' या ‘छुछुश्राना’ | स्वर-हस्वता और ‘अ’ प्रत्यय परे होने से ‘उ’ को ‘उब्’----‘छुछुवाना' । 'उ' से परे ‘व्’ की श्रुति में मन्दता होने के कारण वैकल्पिक लोप ---‘छुछुआना' । इसी तरह 'खटखुटाना’ ‘भटभटाना' श्रादि अनुकरणात्मक शब्दों से नामधातु ।। | हाथ में करना-हस्तगत करना--‘हथियाना' । बलात् ग्रहण प्रतीत होता है, कुछ अन्याय-पूर्वक । अन्यथा “मैं ने वह सब हस्तगत कर लिया है हो गा । ‘हथिया' नामधातु । “हाथ' से 'आ' प्रत्यय, प्रथम स्वर ह्रस्व, अन्त्य ‘अ’ को ‘हे’ आदेश और ६४' को फिर इय्-‘हथिया' । उस धूर्त ने बेचारी बिधवी का सब धन इथिया लिया ।' 'हथियाना' मुख्य क्रिया, “लेना' सहायक क्रिया | ‘हथिया लेना’ संयुक्त क्रिया ।। संस्कृत में जैसे वीडू’ तथा रुजू आदि मूल धातु हैं; उसी तरह हिन्दी में ‘दुख' मूल धातु है--‘ऑखें दुखती हैं। प्रेरणा में 'अ' प्रत्यय ---‘तूने मेरा फोड़ा दुखा दिया' । 'तू फोड़ा दुखाता है। मन भी दुखता है; जब कोई दुखाता है, तब और भी अधिक । | "पीड़ा से पूरबी बोलियों में तथा ब्रजभाषा में नामधातु बनती-वलती है--‘पिरायें मोरी अँखियाँ'-मैरी ऑखें दुख रही हैं। ब्रजभाषा और गुजराती के सम्मिश्रण में 'वैष्णव जन तो तेणे कहिए, जो पीर पराई जाणे रे? तथा अझ कि जाना प्रसव की पीर' अवधी-काव्य में ‘पीड़ा का पीर रूप प्रकट है । पीड़ा' का तद्भव रूप ‘पीर' ही है । तुलसी के प्रयोग में वजन पूरा करने के लिए “पीरा' समझिए । परन्तु राष्ट्रभाषा ने दुखने के अर्थ में *पिराना’ रूप नद्द ग्रहण किया। इस का कारण है । ‘पीर' शब्द हिन्दी ने अर्थ-विशेष में जमा दिया है। प्रसव-बेला में जो पीड़ा होती है, उसे ही पीर कहते हैं--‘पीर उठन लागि'-पीड़ा उद्भूत होने लगी। यानी पीड़ा' का पीर रूप में विकास स्त्री-समाज ने किया और वह उस अर्थ में एक तरह से चिपक गया है। इसी लिए इस से राष्ट्रभाषा ने ‘राम का पेट पिराता है। जैसे प्रयोग नहीं स्वीकार किए । अवधी श्रादि में 'पिरायँ तिङन्त के साथसाथै पिराति हैं य कृदन्त-तिङन्त प्रयोग भी होते हैं । इस का कारण है। राष्ट्रभाषा के व्याकरण में भी यह विवेचन उपयोगी हो सकता है; इस लिए कुछ दिग्दर्शन ।