पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/५६

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रही है । पर साहित्य में भी कृत्रिमता आगे कम होती गई। अपभ्रंश का जो रूप में साहित्य में दिखाई देता है, बोल-चाल की भाषा भी वैसी ही होगी; नहीं कहा जाँ सकता । द्वितीय अवस्था की अन्य प्राकृत के शो रूप हमारे सामने हैं। और जिनका प्रभाव ‘अपभ्रंश'--साहित्य में दिखाई देता है, वे ही उस समय की जनता के साधारण व्यवहार में भी यदि होते, तो हम लोग आज ‘सूत' को ‘सुच’ और ‘पूत’ को ‘पुत्त’ बोलते होते ! पंजाबी अवश्य ‘पुचर' बोलते हैं, परन्तु पुत्त’ कोई नहीं बोलता } हिन्दी ही नहीं, वर्तमान सभी भारतीय भाषाओं में राजा' का उच्चारण-लेखन संस्कृत के ही समान है, परन्तु प्राकृत में इसका रू ' है ! निपट ग्रामीण स्त्री भी ‘मोर राजा' कह लेती है, कहती हैं। कहीं कोई ‘रा नहीं कहता । यदि राजा' का रूप ‘रा’ कभी जन-गृहीद हुआ होता, तो आज भी वह उसी रूप में कहीं चलता दिखाई देता | उलटी गंगा पहाड़ पर न चढ़ती कि रा’ को फिर जनता ‘राजा' कर देती ! “राश्ना' बनाया हुआ रूप है, प्राकृत व्याकरण में दी हुई विधि के अनुसार । हीं जन-भाषा में किसी पद के उपन्य ब्यंजन का लोप देख कर वैसा लिख दिया गया होगा कि ‘अन्तिम सस्वर व्यंजन का स्वर शेष रहता है, व्यजन का लोप हो जाता है। बस, वह नियम बन गया ! सर्वत्र वैसा बनाया जाने लगः ! ऐसा विकृत रूप भाषा का कर दिया गया है कि अचरज होता है ! ‘प्राकृत' के नमूने लीजिए-{ शुक> सुऋ+=) ‘सुआ' देख कर कोई वैसः नियम बना दे और ‘पिक’ को ‘पिझ' तथा 'काक’ को ‘का' कर दे, तो कैसा रहेगा ? हृदय --- हिश्रश्न । पिता - पिशा, पिद माता - माझा नदी - राई ‘मा' तथा 'श्री' का मतलब कहीं का भी कोई जन समझ सकता है ? ‘माता' 'पिता' सब बोलते-समझते हैं । कर्णकटुता का तो कोई ठिकाना ही नहीं ! संस्कृत में तथा हिन्दी अादि आधुनिक भाषाओं में ऐसा कोई शब्द न मिलेगा, जिसके प्रारम्भ में ‘ए’ हो । परन्तु प्राकृतो में कारादि शब्दों की बेहद भरमार है ! यहाँ तक कि 'न’ भी ‘ए’ कर दिया गया है ! प्राकृत की तीसरी अवस्था के प्रारम्भ (अपभ्रंश) में भी यह प्रवृत्ति कुछ-कुछ दिखाई देती है; परन्तु अधिकतर उन साहित्य-