पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/५५०

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आदि प्रत्यय लगा कर-खरीदता है, खरीदे गा, खरीदा था; आदि क्रियारूप बनते-चलते हैं। यानी खरीद’ धातु बना ली । परन्तु “फरोख्त' को दूर रखा । “बेचता है' की जगह ‘फरोखता है' नहीं होता । खरीद’ तथा ‘रसीद' आदि शब्द उच्चारण में हिन्दी-प्रकृति के अनुकूल हैं; खुप गए ! परन्तु 'फरोख्त’ ‘सख्त’ ‘दरख्त अादि यहाँ नहीं खपे । प्रकृति के अनुकूल नहीं । सो, ‘खरीद' हिन्दी की धातु है, नामातु नहीं । जैसे 'बेच उसी तरह खरीद' 1 स्त्रीलिङ्ग *खरीद' भाववाचक संज्ञा है। बेन्च' वैसी संज्ञा नहीं, ‘बिक्री है। 'घबराता है' में “घबरा' अकर्मक धातु है । “घर” कोई संझा नहीं कि जिस से घबरा' नामधातु बनी हो ! “घबराह कृदन्त संज्ञा है । राष्ट्रभाषा में नामधातु स्पष्ट हैं । हाँ, अवधी तथा ब्रजभाधा आदि नामधातुओं के संबन्ध में कुछ और कहना हैं । जैसा कि इस प्रकरण में कई जगह चलाया गया है, नामधातुओं के सुधि युः 'अपने' था तद्भव शब्द से ही होती है; कहीं कोई पवाद मिल जाए, यह अलग बात है। विभिन्न जनपदीय बोलियों में भी यही स्थिति है । हिन्दी में ‘दर्शाता हूँ” जैसे प्रयोग अवधी अदि के “दरसावत' की प्रतिध्वनि हैं। ब्रजभाषा में तथा अवधी-साहित्य में दरसत’ ‘दरसावत' आदि इयोरा प्रवाह-प्राप्त है । परन्तु हिन्दी में ‘दश्वाती हैं। न चले गाः जैसे ‘उच्ऋ’ की जगह उरिन' न चुले राई । दश ले परख' कार के एक घातु अवधी-अञ्जभाषा आदि में चलती हैं---“दरसत’ ‘परखि ऋदि । परन्तु राष्ट्रभाषा में परसता है छोई न बोले , ज लेखे । *छू' धातु अपनी विद्यमान है। अवध व ओं की अनबोलि में रभु छातु नहीं चलतः । केबलु झाब्द-सायि ॐ ॐ यो देखे-सुते रहे हैं। काव्य में सरस' तत्सम से भी ‘उरात सरसावत' जैसे नामः-प्रयोग होते हैं। परन्तु राष्ट्रभाषा में 'सूरसता है' या 'सरसला है' न चलें गे । - भाषा में सरसात' ‘सरसृत वैकल्पिक प्रयोग हैं-अकलंक । “श्रा' प्रत्यय का वैकल्पिक लोप । “सरसवत' प्रेरणा-रूप है ।।

  • मिटता है जैसे प्रयोग सोचने पर नामघातु के ही जान पड़ते हैं । ‘मिट्टी में मिल जाता है, जो दीनों को दुख देता है' को “वह जी मिट जाता है' भी कह सकते है। मिट्टी में मिलता है-*मिता है एक ही बात है। यानी मिंट जाने के अर्थ में मिट्टी से नामधातु 'मिट । *