पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/५५५

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एकदम बेमजे का गोरखधन्धा है ! सीधी बात यह कि जहाँ 'अ' या ‘श्रो पुंविभक्ति लगती है, उन शब्दों के मूल रूप ऐस’ ‘कैस’ ‘जैस' आदि में ही * प्रत्यय लग कर ‘ऐसे' आदि रूप बनते हैं, जो सदा एकरस रहते हैं, अव्यय हैं । यही प्रत्यय 'त' शादि कृदन्त--प्रत्ययों में लगता है, तब चलते-चलते श्रादि अव्ययात्मक रूप बनते हैं। यह ‘ए’ सार्वनामिक क्रिया-विशेषणों में तथा धातु-स्त्रयों में लगता है, द्विविध है। जैसे ढिठाई” में “आई” तद्धित भावप्रत्यय और 'लिखाई में कृदन्त भाव--प्रत्यय ! जहाँ ‘ऐस' का 'अस' और 'जैस' का 'जस' रूप हो जाता है, वहाँ ‘ए’ नहीं होता। ‘मानस’ (अवधी) में “जस जस सुरसा बदन बढ़ावा' । ‘जैस' का अवश्य जैसे हो स्माए गी । क्रिया की निष्फलता आदि प्रकट करने के लिए पूर्वकालिक ( क्रिया ) की द्विरुक्ति होती हैं १-मैं पढ़--पढ़ कर मर गया; पर समझ कुछ न पाया। २---पीस-पीस कर बुढ़िया मरे, कुत्ते खाएँ, मौजे करें ! ३०-दौड़ता-दौड़ता थक गया; पर तुम्हें न पकड़ पाया । कभी क्रिया का आधिक्य भी पूर्वकालिक क्रिया की द्विशक्ति से प्रकट होता है---‘खो-खो कर तू ने दुपहर कर दी ।' जहाँ क्रिया की निष्फलता आदि प्रतीत होती है, वहाँ भी क्रिया का श्राधिक्य तो प्रकट ही होता है; अर्थान्तर के साथ क्रियार्थक क्रिया की द्विरुक्ति नहीं होती है परन्तु प्रेरणा आदि की बराबर होती है दूध पिली-पिला कर इतना बड़ा कर दिया। ‘पढ़ा-चढ़ा कर मर गया; पर इस की समझ में कुछ न आया !' “आ' प्रत्यय क्रिया की न्यूनता में द्विरुक्ति से क्रिया का आधिक्य प्रतीत होता है; यह ऊपर कहा गया । परन्तु इस के ठीक विरुद्ध, क्रिया की न्यूनता भी द्विरुक्ति से प्रकट होती है; जब कि पर-खण्ड में तदर्थ 'अ' प्रत्यय लग जाता है । | १-- पढ़ता-पढ़ाता तो कुछ है नहीं ! २----यहाँ त कुछ करता-करता तो है ही नहीं ! दूसरे खण्डों में 'आ' प्रत्यय स्पष्ट है । प्रेरणा में पर-स्खण्ड के श्राद्य अंश में परिवर्तन हो जाता है---( वर्ण लोप-वविकारादि )